पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१३३

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(१०१४) यौगवासिष्ठ । गये हैं, इच्छादिक विकार नष्ट हो गये हैं, दीनता जाती रही हैं, तीनों जगविषे मेरी जय है, सदा उदितरूप हौं॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे विश्रांत्यागुमनवर्णने नाम द्विचत्वारिंशत्तमः सर्गः ॥ ४२ ॥ त्रिचत्वारिंशत्तमः सर्गः ४३ चित्तसत्तासूचनवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी । देह इंद्रियोंकरि जो केवल करताहै, अरु मनविषे असंगता है, तब जो कछु वह कर्ता हैं, सो भी कछु नहीं करता, जो कछु इंद्रियोंकार इष्ट प्राप्त होता है, सो एक क्षणमात्र सुख प्राप्त होता, तिस क्षण प्रसन्नताविषे जो बंधमान होताहै सो बालकवत् मूर्खहै, जो ज्ञान • वान्है,सो तिसविषे बंधमान नहीं होता॥हे रामजी! वांछाही इसकोदुःखी करती है,जो सुंदरविषयकी वॉछाकरताहै,जब यत्रकार तिनकीप्राप्तिहोती हैं, तब मध्य क्षणसुख होताहै, बहुरिवियोग होता हैं,तब इसको दुःख दे जाते हैं, तिस कारणते इनकी वांछा त्यागनीयोग्य है, इनकी वांछा तब होती हैं, जब स्वरूपका अज्ञान होता हैं, अरु देहादिकविषे अहंभाव होता है, जब देहादिकविषे अहंभाव होताहै, तब अनेक अनर्थकी प्राप्ति होती है । ताते हे रामजी! ज्ञानरूपी पहाडपार चढ़े रहना. अहंतारूपी गर्तविषे नहीं गिरना ॥ हे रामजी ! आत्मज्ञानरूपी सुमेरु पर्वत है, तिसपर चढी बहुरि अहंता अभिमान कारकै गर्तविषे वास लेना सो बडी मूर्खता है, ताते गर्तविषे नहीं गिरना, जब दृश्यभावको त्यागेगा तब अपने स्वभावसत्ताको प्राप्त होगा, जो सम शांतरूप है, अरु विकल्पजाल सब मिटि जावैगा, समुद्रवत् पूर्ण होवैगा, द्वैतरूप ऊरणा कोऊ न फुरैगा ॥ हे रामजी जब अंतरते विषयको विष जानै तब मन भी निरस हो जाता है, चित्त निःसंग होता है, वस्तुते देखै तौ सबविषे सत्ता समानरूप ब्रह्म चिद्धन स्थित है, तिसते जो कछु इतर द्वैत भासता है, सो स्वरूपके प्रमादकर भासता हैं ॥ हे रामजी । आत्माका अज्ञानही बंधनरूप है, आत्माका बोधही मुक्तरूप है, ताते बल करिके आपको