पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१३५

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(१०१६) योगवासिष्ठ । - है, अरु आत्मबोधकारकै शति हो जाता है, जैसे मोहकारिकै बाल- कको वैताल दिखाई देता हैं, मोहके नष्ट हुए वैताल नष्ट हो जाता है, तैसे अज्ञानकार चित्त उदय होता है, अज्ञानके नष्ट हुए चित्त नष्ट हो। जाता हैं, जब विद्यमान भी क्ति भासता है, तब भी बोधकारि निर्बीज होता हैं, जैसे लोहा पारसकेसाथ मिलकर स्वर्ण होता हैं, आकार तौ वही दृष्टि आता है, परंतु लोहे भावका अभाव हो जाता है, तैसे अज्ञानकारि जगत् भासता हैं, अरु ज्ञानकार चित्त अचित्त होजाता हैं, अरु जड जगत् नहीं भासता वही ब्रह्मसत्ता होकर भासता है, सत् पदको प्राप्त होता है, परंतु नामरूप तैसेही भासता है । हे रामजी । ज्ञानीका चित्त भी क्रिया करता दृष्ट आता है, परंतु चित्त अचित्त हो जाता है, जो अज्ञानकरिकै भासता है, सो ज्ञानकारिकै शून्य हो जाता है, जेता कछु जगत् अबोधकारिकै भासता था, सो बोधकारकै शीत हो जाता हैं, बहुरे नहीं उपजता, वह चित्त शतपको प्राप्त होता है, कोई काल तौ वह भी तुरीया अवस्थाविषे स्थित हुआ विचरता है, बहुरि तुरीयातीत पदको प्राप्त होता है, अध, ऊर्ध्व, मध्य सर्व ब्रह्मही सदा इसप्रकार अनेक होकार स्थित भया हैं, अनेक भ्रमकरिके भी एकही है, सर्वात्माही है,अपर चित्तादिक कछु नहीं ॥ इति श्री योगवासि- ठे निर्वाणप्रकरणे चित्तसत्तासूचनवर्णनं नाम त्रिचत्वारिंशत्तमःसर्गः४३॥ चतुश्चत्वारिंशत्तमः सर्गः ४४. बिलोपाख्यानवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच । हे रामजी ! अबै तू संक्षेपते एक अपूर्व आश्चर्य- रूप बोधका कारण अज्ञान सुन, एक बीलफल हैं, अरु अनंत योजन- पर्यंत तिसको विस्तार है, अरु अनंत युग व्यतीत होगयेहैं, वह जर्ज- ‘रीभावको कदाचित् नहीं प्राप्त होता, अरु अनादि है, तिसविषे अवि- नाशी रस है, कबहूँ नाश नहीं होता, रसकार पूर्ण है, अरु चंद्रमाकी