पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१३७

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( १•१८) योगवासिष्ठ । अहंतादिक जगत् है, इसविषे भेद रंचक भी नहीं, द्वैत एक फलना सर्व वही है। वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी । जैसे ब्रह्मांडकी मज्जा सुमेरु आदिक पृथ्वी है, तैसे चेतन बिलकी मजा यह ब्रह्मांड है, सब, जगत् चेतन : बीलरूप है, इतर कछु नहीं, तिस सर्व जगत् चेतनका विनाश संभवता नहीं ॥ हे रामजी ! चेतनरूपी मिर्च बीज है, तिसविषे जगतरूपी चम- त्कार तीक्ष्णता है, सो सुषुप्तवत् निर्मल है, शिलाके अंतरवत् अमिश्रित है ॥ हे रामजी । अब अपर आश्चर्यरूप आख्यान सुन, चंद्रमावत् महासुंदर प्रकाश अरु स्निग्ध शीतल स्पर्श है; अरु विस्तृतरूप शिला है, सो महानिरंध्र है, घनरूप है, तिसविषे कमल उपजते हैं, उर्ध्व तिसकी वल्ली है; अरु अध मूल हैं, अरु अनेक तिसकी शिखा हैं ॥ राम उवाच ॥ हे भगवन् ! सत्य कहते हौ, यह शिला मैं भी देखी है, जो विष्णुकी मूर्ति नदीविषे शालग्राम है ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी! ऐसे तू जानता है, अरु देखा भी हैं, परंतु तैसी तिसके सब अंतर हैं, जो शिला मैं कहता हैं सो अपूर्व शिला हैं, तिसके अंतर ब्रह्मांडके समूह हैं। और कछु भी नहीं ॥ हे रामजी। चेतनरूपी शिला मैं तुझको कही है, तिसविषे संपूर्ण ब्रह्मांड है सो घन चेतनता करिकै शिला वर्णन करी है, अनंत घन अरु निरंध्र है, सो परब्रह्म आकाशवत् शिला है, आकाश, पृथ्वी, पर्वत, देश, नदियां, समुद्र इत्यादिक सबही विश्व तिस शिलाक अंतर स्थित हैं, अरु कछु है नहीं, जैसे शिलाके ऊपर कमल लिखे होते हैं, सो शिलारूप है, शिलाते इतर कछु नहीं, तैसे यह जगत् आत्मरूपी शिलाविषे है, आत्माते भिन्न कछु नहीं ॥ हे रामजी ! भूत भविष्य वर्तमान जो तीनों काल हैं, सो उस शिलाकी पुतलियां हैं, जैसे शिल्पी पुतलियां कल्पता है, कि एती पुतलियों इस शिलाते निकसे तैसे यह जगत आत्माविषे है, उपजा नहीं. काहेते कि जो मन- रूपी शिल्पी कल्पता है, तिसकार नानाप्रकारका जगत् भासता है, आत्मा- विषे कछु उपजा नहीं जैसे सुषुप्तरूप शिलाकेऊपर कमलरेखा लिखी होती है, सो शिलाते इतर कछु नहीं, तैसे यह जगत् आत्माविषे है, सो आत्माते भिन्न नहीं, जैसे शिलाविषे पुतली होती है, सो न उद्यन अस्त होती