पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१३८

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शिलाकोशोपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१०१९) है, ज्योंकी त्यों शिला है, वैसे आत्माविषे जगत् न उदय न अस्तहोता है. काहेते कि, वास्तव कछु नहीं,अरु आत्माते इतर जो कछु द्वैतकल्पना होती है, सोअज्ञानकारकै भासती है। जब बोध हुवा तब शांत होजाती है, जैसे जलकी बूंद समुद्रविषडारी समुद्ररूप हो जाती है, तैसे बोधकार कल्पना आत्माविषे लीन हो जाती है । हे रामजी! चेतन आत्मा अनंत है, तिसविषे विकारकल्पना कोई नहीं, अज्ञानकोरे कल्पना भासती है, ज्ञानकारिकै लीन हो जाती है, विकार भी आत्माके आश्रय भासते हैं, अरु आत्मा विकारते रहित है, ब्रह्मते विकार उत्पन्न होते हैं, अरु ब्रह्महीविषे स्थित हैं, अरु वास्तवते कछु हुए नहीं, सब आभास- मात्र हैं, जैसे किरणों विषे जलाभास होता है, तैसे ब्रह्मविषे जगतविकार आभास होता है, जैसे बीजविषे वृक्ष होता है, पत्र टास फूल फलका विस्तार एकही बीजके अंतर होता है, अरु बीजसत्ता सबविषे अनुस्यूत होती हैं, बीजते इतर कछु नहीं होता, तैसे चिद्धन आत्माके अंतर जगविस्तार है, सो चिङ्घन आत्माते इतर कछु नहीं, वही, अपने आपविर्षे स्थित है, अरु जगत् भी वहीरूप हैं, जब एक मानिये तब द्वैत भी होता है, जब एक कहना भी नहीं, तब द्वैत कहाँ होवे, जगत् अरु आत्माविषे भेद कछु नहीं, आत्माही अद्वैत अपने आपविष स्थित, है, जैसे शिलाविषे मूर्ति लिखी होती है, सो शिलारूप हैं, तैसे जगत् आत्मारूप हैं, जैसे-शिलाविषे भिन्न भिन्न विषमरूप मूर्तियां होती हैं, आधाररूप शिला अभेद हैं, तैसे आत्माविषे जगतमूर्तियों भिन्न भिन्न विषमरूप भासती हैं, अरु आधार चेतन अभेद है, ब्रह्मसत्ता समान सुषुप्तवत् सम स्थित है, बड़े विकार भी तिसविषे दृष्ट आते हैं, परंतु वास्तव सुषुप्तवत् विकारते रहित स्थित हैं, ऊरणेते रहित चेतन शिलों स्थित है, तिस नित्य शांत चिद्धनरूप सत्ताविषे यह जगत् कल्पित है, अधिष्ठानसत्ता सदा सर्वदा शतरूप है, भेदको प्राप्त कदाचित् नहीं होती, जैसे जलविषे तरंग अभेदरूप हैं, जैसे स्वर्णविर्षे भूषण अभिन्न- रूपहें, तैसेआत्माविषे जगतअभिन्नरूप है॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाण- प्रकरणे शिलाकोशोपदेशवर्णनं नाम पंचचत्वारिंशत्तमः सर्गः ॥१५॥