पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१३९

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योगवासिष्ठ । षट्चत्वारिंशत्तमः सर्गः ४६. सत्तोपदेशवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच॥हे रामजी! जैसे बीजके अंतरफूलफल वृक्ष संपूर्णहोता है, सो आदिभी बीज,अरु अंतभी बीज है,जब फल परिपक्वहोताहैतब बीजही होता है, तैसे आत्मा भीजगविषे है, परंतु सदा अच्युत,अरु सम है,कदाचित् भेदविकार परिणामको नहीं प्राप्त भया,अपनी सत्ताकार स्थित है, जगत्के आदि भी.वही है, मध्य भी वही है, अंत भी वही है, कछु-अपर .भावको प्राप्त नहीं भया, देश काल कर्म आदिक जेती कलना भासती है, सो वहीरूप है जेते कछु शब्द अरु अर्थ हैं, सो आ- स्माते भिन्न नहीं होते, जैसे वृक्षकेआदि भी बीज;अरु अंत भी बीज है, मध्य जो कछ विस्तार भासता है सो भी वहीरूप है, भिन्न कछु नहीं, तैसे जगतके आदि भी आत्मसत्ता है अंत भी आत्मसत्ता है, मध्य जो कछु भासता है, सो भीवहीरूप है ॥ हे रामजी १ चैतनरूपी महा आदर्श हैं, तिसविषे संपूर्ण जगत् प्रतिबिंब होता है, अरु संपूर्ण जगत् संकल्पमात्र है, जैसा जैसा किसीविषे फुरण दृढ होता है, तैसाही आत्मसत्ताके आश्रित होकर भासता है, जैसे चिंतामणिविषे जैसा कोऊ संकल्प धारता है, तैसाही प्रगट होता हैं, सो संकल्पही मात्र होता हैं, तैसे जैसी जैसी भावना कोऊ करता है, तैसी तैसी आत्माके आश्रित होकर भासती है, अनंत जगआत्मारूपी मणिके स्थित होते . हैं, जैसी कोङ भावना करता है, तैसाही तिसको हो भासती है ॥ हे रामजी! आत्मरूपीडब्बा, तिससों जगरूपी रत्न मोती पन्ने निक- सते हैं, जैसा ऊरणा होता है, तैसा जगत् भासि आता है, जैसे शिला के अंतर रेखा होती हैं, सो नानाप्रकार चित्र भासतीहैं, सो अनन्यरूप है, तैसे आत्माविषे जगतअनन्यरूप है,जैसे शिलाके अंतर शंखचक्रादिक रेखा भासती, तैसे यह जगत् आत्माविषे भासता है, सो आत्मारूप है, आत्मारूपी शिला निरंध्र, तिसविषे छिद्र कोई नहीं जैसे जलविषे तरंग जलरूप होते हैं, तैसे ब्रह्मविषे जगतबह्मरूप,सो कैसा ब्रह्म है, समशीतरूप