पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१४१

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(१०२२) योगवासिष्ठ । इस दृष्टौतका दूसरा अर्थ है, जैसे मोरके अंडेविषे नानात्व कछु हुई नहीं, जिसको दिव्यदृष्टि है, तिसको उसविर्षे अनउपजी नानात्व भासती है, अरु जिसको दिव्यदृष्टि नहीं तिसको बीजही भासता है, नानात्व नहीं भासता, तैसे जिनको अज्ञानरूपी दिव्यदृष्टि है, तिनको अनउपजा जगत् नानात्व हो भासता है, अरु जो अज्ञानदृष्टिते रहित हैं, तिनको एकही ब्रह्म भासता है, अपर कछु नहीं भासता । हे रामजी !.नानात्व भासता हैं तौभी कछु नानात्व है नहीं, जैसे मोरके अंडेविषे नानारंग भासते हैं, तौ भी एकरूप है, तैसे यह जगत् भिन्न भिन्न पदार्थ भासते हैं, तो भी , एक ब्रह्मसत्ता हैं, द्वैत कछु नहीं ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे सत्तोपदेशवर्णनं नाम षट्चत्वारिंशत्तमः सर्गः ॥ १६ ॥ सप्तचत्वारिंशत्तमः सर्गः ४७. ब्रह्लैकताप्रतिपादनम् । वसिष्ठ उवाच ।। हे रामजी ! जैसे अनउपजी काँतिरंग मयूरके अंड- विषे होते हैं, सो बीजते इतर कछु नहीं, तैसे अहं त्वं आदिक जगत् आत्माविषे अनउदयही उद्यरूप भासताहै, जैसे बीजविषे उन रंगहूकी उदय भी अनउदयरूप, तैसे आत्माविषे जगतकी उदय भी अनउद्य- रूप है, अरु आत्मसत्ता अशब्द पद है, वाणीकरि कछु कहा नहीं जाता ऐसा सुख स्वर्गविषे नहीं पाताई अरु अपर भी किसी स्थानविषे ऐसा सुख नहीं पाता, जैसा सुख आत्माविषे स्थित हुए पाता है । हे रामजी । आत्मसुखविषे विश्रांति पानेनिमित्त मुनीश्वर, देवता, गण अरु सिद्ध महाऋषि दृश्य दर्शनसंबंध फुरणेको त्यागिकरि स्थित होते हैं, तोते उत्त- म सुख हैं, संवितुविषे जो संवेदनका ऊरणा है, सो जिनका निवृत्त हुआ है, तिसका जिनने त्याग किया है, तिन पुरुषोंको दृश्यभावना कोई नहीं फुरती, न कोऊ तिनको कर्म स्पर्श करता है, अरु प्राण भी तिनके नि- स्पद होते, चित्त चेतनके संबंधते रहित चित्रकी मूर्तिवत् स्थित होतेहैं,