पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१४२

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अौकताप्रतिपादनवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१०२३) अरु शतरूप स्थित होते हैं ॥ हे रामजी ! जब चित्तकला फुरती है, तब इसको संसारभ्रम प्राप्त होता है, अरु जब चित्तका ऊरना मिटि जाता है, तब यह शतरूप अद्वैत स्थित होता है, जैसे राजाकी सेना युद्ध करती हैं, अरु जीत हार राजाकी होती है, तैसे चित्तके ऊरणेद्वारा आत्माविषे बंध मोक्ष होता है, यद्यपि आत्मा सतरूप अच्युत है, परंतु मन बुद्धि अंतःकरणद्वारा आत्माविषे बंधमोक्ष भासता है आत्मा सबका प्रकाशक है, जैसे चंद्रमाकी चांदनी वृक्षादिकको प्रकाशती है, तैसे आत्मा सर्व पदार्थको प्रकाशता है ॥ सो कैसा है न दृश्य है, न उप- देशका विषय है, न विस्ताररूप है, न दूर है, केवल अनुभव चेतन- रूप आत्माकोरे सिद्ध है ॥ न देह है, न इंद्रियगण है, न चित्त है, न वासना है, न जीव हैं, न स्पंद है, न अपरको स्पर्श करता है, न आकाश है, न सत् है, न असत् है, न मध्य है, न शून्य है, न अशून्य है, न देश काल वस्तु है, न अहं है, न इतर है, इत्यादिक सर्व शब्दते रहित हृदयस्थानविषे प्रकाशता है, अनुभवरूप है, तिसका न आदि है, न अंत है, न शस्त्र काटते हैं, न अग्नि जलाय सकता है, न जल गलाय सकता है, न यह हैं, न वह है, न वायु शोष सकता है, अपर किसीकी समर्थता नहीं; सो चित्तरूप आत्मतत्त्वहै, न जन्मता है, न मरता है, अरु देहरूपी घट कईबार उपजते हैं, कई बार नष्ट होते हैं, अरु आत्मरूपी आकाश सबके अंतर बाहिर अखंड अविनाशी है, जैसे अनेक घटविषे एकही आकाश स्थित होता है, तैसे अनेक पदा- पदार्थविषे एकही ब्रह्मसत्ता आत्मरूप करकै स्थित है ॥ हे रामजी । जेता कछ स्थावर जंगम जगत् दृष्टि आता है, सो सब ब्रह्मरूप है. कैसा ब्रह्म है, निर्धर्म निर्गुण है, निरवयव निराकार है, निर्मल निर्वि- कार है, आदि अंतते रहित सम शतरूप है, ऐसी दृष्टिको आश्रय करिकै स्थित हो ॥ हे रामजी ! इस दृष्टिको आश्रय करोगे तब बड़े आरंभ कार्य भी तुमको स्पर्श न कॅरेंगे. जैसे आकाशको बादल स्पर्श नहीं करते हैं, तैसे तुमको कर्म स्पर्श न करेंगे काल क्रिया