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= = संबेदनविचारवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६ (१०२७) नष्ट हो जाता है, आत्मा जो परमार्थसार है, तिसकी भावना करु, संसा रभ्रमते मुक्त होवेगा । इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाण प्रकरणे स्मृतिविचार योगवर्णनं नाम अष्टचत्वारिंशत्तमः सर्गः ॥ ४८ ॥ एकोनपंचाशत्तमः सर्गः ४९. मंवेदनविचारवर्णनम् । राम उवाच ॥ हे मुनीश्वर ! जो कछु जानने योग्य था, सो मैंने जाना है, अरु जो कछु देखने योग्य था, सो देखा है। अब मैं तुम्हारे ज्ञानरूपी अमृतके सिंचने कारकै परमपदविषे पूर्ण आत्मा हुआ हौ। ॥ हे मुनीश्वर ! पूर्णने सब विश्व पूर्ण करी है, पूर्णते पूर्ण प्रतीत करी है, पूर्णविषे पूर्णही स्थित हैं, अपर द्वैत कछु नहीं, यह मुझको अब अनुभव भया है ॥ हे मुनीश्वर ! ऐसे मैं जानिकार लीलाके निमित्त अरु बोध- की बुद्धिके निमित्त तुमसों पूँछता हौं, ज्यों बालक पितासों पूंछता है, तब पिता उद्वेग नहीं करता, तैसे तुम उद्वेगवान् नहीं होना ॥ हे मुनी- श्वर ! श्रवण, नेत्र, त्वचा, रसना, प्राण पांचों इंद्रियें प्रत्यक्ष दृष्ट आती है, जब यह मरजाता है, तब तिस कालविष विषयको ग्रहण क्यों नहीं करती, अरु जीवते कैसे ग्रहण करती हैं, अरु मुए क्यों नहीं ग्रहण करती हैं, अरु घटादिककी नाईं जड बाह्यस्थित है, अंतर इनका अनु- भव कैसे होता है, लोहेकी शलाकावत् यह भिन्न भिन्न हैं, इनका इकट्ठा होना कैसे हुआ है, परस्पर जो एक आत्मकरि अनुभव होता है, मैं देखता हौं, मैं सुनता हौं, इत्यादिक इकट्ठी वृत्ति क्योंकर हुई हैं, मैं समान कारकै जानता ही हौं, परंतु विशेषकर तुमसों पूँछता हौं । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! इंद्रियाँ अरु वित्त अरु घट पट आदिक पदार्थ हैं, सो निर्मल चेतनरूप आत्माते भिन्न नहीं, आत्मत्त्व अका- शते भी सूक्ष्म स्वच्छ है ॥ हे रामजी । जब चेतनतत्त्वते चैत्यता पुर्य- एकाकी भावना फुरी है, तब आगे इंद्रियगणसहितहू देखती भई, तब चित्तके आगे इंद्रियगण हुए हैं, इनकी घनताकरिकै चेतनतत्त्व पुर्यष्टका