पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१४७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(१०२८) योगवीसिष्ठ । भावको प्राप्त हुआ है, तिसविर्षे सब घटादिक पदार्थ प्रतिबिंबित हुए हैं। पुर्यष्टकाविषे भासें हैं ॥ राम उवाच ॥ हे मुनीश्वर ! अनंत जगत् जो रचे हैं, अरु महाआदर्शविषे प्रतिबिंबित हैं, तिस पुर्यष्टकाका रूप क्या है, अरु कैसे हुई है ? ।। वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! आदि अंतते । रहित जो जगत्का बीजरूप अनादि ब्रह्म है, सो निरामय है, अरु प्रका- शरूप हैं, कल्पनाते रहित जो जगतका बीजरूप अनादि ब्रह्म है, कल-, नाते रहित शुद्ध चिन्मात्र अचेतन है, सो सब कलनाके सन्मुख हुआ। तब तिसका नाम जीव कहा, सो जीव देहको चेतता भया, जब अहंभाव ऊरा, तब अहंकार हुआ, जब मनन करने लगा, तब मनन हुआ, जब : निश्चय करने लगा, तब बुद्धि हुई, अरु परमात्माके देखनेवाली इंद्रि- योंकी भावना हुई, तब इंद्रिया भई जब देहकी भावना करने लगा,तब देह हुई, घटपटकी भावना हुई तब घटपट हुए, इसीप्रकार जैसी जैसी भावना होती गई, तैसेही पदार्थ होते गये ॥ हे रामजी ! यह स्वभाव जिसका है, तिसको पुर्यष्टको कहते हैं, स्वरूपते विपर्ययरूप जो दृश्यकी ओर भावना भई है, अरु कर्तृत्व भोकृत्व सुख दुःख आदिककी भावनाकलना अभिमान जो चित्तकलाविषे हुआ इसकरि तिसको जीव कहते हैं, जैसी जैसी भावनाका आकार हुआ तैसी तैसी वासना करत भया,जैसे जल- कारे सिंचा हुआ बीज टास पत्र फूल फल भावको प्राप्त होता है, तैसे - वासनाकर सिंचा, हुआ स्वरूपके प्रमादकार महाभ्रमजालविषे गिरता है, ऐसे जानता है कि, मैं मनुष्य देह सहित हौं, अथवा देवता हौं, स्थावर हौं, इत्यादिक देहको पायकार देहसाथ मिला हुआ जानता है. ऐसे नहीं जानता कि, मैं चिदात्मा हौं, देहसाथ मिला हुआ परिच्छिन्न तुच्छरू, आपको देखता है, इस मिथ्या ज्ञानकारकै डूबता है, देहविषे अभिमान- करिकै वासनाके वश हुआ चिरपर्यंत अध एवं मध्यविषे यह जीव भ्रमता हैं, जैसे समुद्रविषे आया हुआ काष्ठ तरंगकार उछलता है, अध ता है, जैसे घटीयंत्रके टिंड़ अध ऊर्ध्वको जाते हैं, तैसे जीव वासनाके वशते अध ऊर्ध्वको भ्रमताहै, अरु जब विचार अभ्यासकारकै आत्मबोधको प्राप्त होता है, तब संसारबंधनते मुक्त होता है, आदिअंतते