पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१४८

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संवेदनविचारवर्णन-निर्वाणकरण ६. (१०२९) रहित जो आत्मपद है, तिसको प्राप्त होता हैं, बहुत काल योनिको भौगिकै आत्मज्ञानके वशते परमपदको प्राप्त होताहै ॥ हे रामजी ! स्वरू- पते गिरे हुए जीव इसप्रकार भ्रमते हैं, अरु शरीरको पाते हैं, अब यह सुन कि, इंद्रियां मृतक हुए विषयको किसनिमित्त ग्रहण नहीं करतीं ॥ हेरामजी ! जब शुद्ध तत्त्वविष चित्तकलना फुरती है, तब वह जीवरूप होती है, बहुरि मनसहित षट् इंद्रियोंको लेकर देहरूपी गृहविषे स्थित होती हैं, तब बाह्य विषयको ग्रहण करतीहै, मनसहितष इंद्रियके संबं- धकार विषयका ग्रहण होता है, इनते रहित विषयको कदाचित् नहीं ग्रहण करती इसप्रकार इनविषे स्थित होकर जीवकला विषयको ग्रहण करती है, यद्यपि इंद्रियां भिन्न भिन्न हैं, तो भी इनको एकताकार लेती हैं, इनका इकट्ठा होना अहंकाररूपी तागेकार होता है, देह इंद्रियों माणिक्यकी नाईं हैं, इनको इकट्ठा कारकै जीव कहता है, मैं देखता हौं, मैं हूंघता हौं, सुनता हौं, मैं बोलता हौं, इत्यादिक इनके अभिमान करिकै विषयको ग्रहण करता है । हे रामजी ! देह, इंद्रियां, मन आदिक जड हैं, परंतु आत्माकी सत्ता पायकार अपने अपने विषयको ग्रहण करती हैं, जबलग पुर्यष्टका देहविपे होती है, तबलग इंद्रियां विष- यको ग्रहण करती हैं, जब पुर्यष्टका देहसों निकस जाती है, तब इंद्रियां विषयको नहीं ग्रहण करतीं ॥ हे रामजी ! यह जो प्रत्यक्ष नेत्र, नासिका, कान, जिह्वा, त्वचा, भासती हैं, सो यह इंद्रियों नहीं, इंद्रियां सूक्ष्म तन्मात्रा हैं, यह तिनके रहनेके स्थान हैं, जैसे गृहविषे झरोखे होते हैं, तैसे यह स्थान हैं, अरु जीवका रूप सुन ॥ हे रामजी ! आत्मतत्त्व सब ठौर पूर्ण है, परंतु तिसका प्रतिबिंब तहाँ भासता है, जहाँ निर्मल ठौर होती है. जैसे जल निर्मलविषे प्रतिबिंब होता है, अरु जैसे दो कुंडे होवें;एक जलकार पूर्ण होवै, दूसरा जलते रहित होवै, तब सूर्यको प्रकाश दोनोंविषे तुल्य होता है, परंतु जिसविषे जल है, प्रतिबिंब तहाँही होता है, जलके डोलनेकर प्रतिबिंब भी हलता दृष्ट आताहै, जहां जल नहीं, तहां प्रतिबिंब भी नहीं तैसे जहां सात्त्विक अंश अंतःकरण होता है, तहाँ आत्माका प्रतिबिंब -