पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१४९

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(१०३० ) योगवासिष्ठ । जीव भी होता है, सो जवलग शरीरविषे होता है, तबलग शरीर चेतन भासता है, जब वह जीवकला पुर्यष्टकारूप शरीरको त्यागि जाती है, तव शरीर जड़ भासताहै, जैसे कुंडेते जल निकसिजावै, तब कुंड सूर्य- के प्रतिबिंबते हीन भासता है, तैसे अंतःकरण अरु तन्मात्रा पुर्यष्टकाविषे आत्माका प्रतिबिंब होता है, जब पुर्यष्टको शरीरको त्यागि जाती हैं, तब शरीर जड भापता है ॥ हे रामजी। जैसे झरोखे आगे कोऊ पदार्थ रा- खिये तब झरोखेको पदार्थका ज्ञान नहीं होता, जब उसका स्वामी आनि देखता है, तब पदार्थको ग्रहण करता है, तैसे इंद्रियोंकेस्थानविषे सूक्ष्म तन्मात्रा ग्रहण करनेवाली होती है, तब विषयको ग्रहण करती हैं, जब तन्मात्रा नहीं होती, तब इंद्रियां नहीं ग्रहण कर सकतीं ॥ हे रामजी । प्रत्यक्ष देव, जो कोऊ कथाका श्रोता पुरुष कथाविषे बैठा होताहै, अरु चिस उसका अपर ठौर निकस जाता है, तब प्रत्यक्ष बैठा है, परंतु सुन- ता कछु नहीं. कहेते कि, श्रवण इंद्रिय मनकेसाथ गई है, जैसे जब पुर्य- ‘धृका निकसि जाती है, तब मृतक होता है. इंद्रियां विषयको ग्रहण नहीं करतीं ॥ हे रामजी ! अहंभमसे आदि लेकर जो दृश्यसो भी है, स्व- गैके आदिविचे आत्मरूपी समुद्रते नरंगवत् फुरी, तिसकार आगे दृश्य कलना हुई है, सो न देश है, न कालहै, न क्रिया है,यह सब असरूप है, वास्तवते कछु नहीं, ऐसे जानिकार असंगविचरु, संसारके सुखदुःख हर्ष शोक रागद्वेषते रहित होकर विचक, तब तू मायाको तरि जावेगा। इति श्रीयोगवासिष्ठ निर्वाणिप्रकरणे संवेदनविचारवर्णनं नाम एकोनपंचा- शत्तमः सर्गः ॥ ४९ ॥ पंचाशत्तमः सर्गः ५०. यथार्थोपदेशवर्णनम् । . वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! वास्तवते इंद्रियादिक गण कछु उपजे ' नहीं, जैसे आदि कमलजन्य ब्रह्माकी उत्पत्ति मैं तुझको कहीहै, सो सब तुझने सुनी है, जैसे आदि जीव पुर्यकारून अन्ना उपजा है, तैसे अपर