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योगवासिष्ठ।

द्वितीयः सर्गः २.


विश्रामदृढीकरणवर्णनम्।

वाल्मीकि रुवाच॥ हे साधो। इसप्रकार रात्रि व्यतीत भई, तमका पटल निवर्त हुआ, तब राम लक्ष्मण शत्रुघ्न उठिकरि स्नान करते भये; संध्यादिक कर्म किये, बहुरि वसिष्ठजीके आश्रमको गये, तहां जाय स्थित भये, बहुरि वसिष्ठजी संध्यादिक करिकै अग्निहोत्र करने लगे, जब करि चुके तब रामादिक वसिष्ठजीको अर्ध्य पाद्यकरि पूजत भये, चरणोंपर भले प्रकार मस्तक राखा, जब रामजी गये थे, तब वसिष्ठजीके द्वारेपर मौन था, एक घडीविषे कई अनेक सहस्र जीव आनि प्राप्त भये, राजकुमार ब्राह्मण, मुनीश्वर, हस्ती, घोडा, रथ बहुतसेना आय प्राप्त भई, तब वसिष्ठजी रामादिकको साथ लेकरि राजा दशरथके गृहविषे आये, तब राजा दशरथ तिनके लेनेको आगे आया, अरु वसिष्ठजीको आदरसे पूजन करत भया, औरलोकोंने भी बहुत पूजन किया, इसप्रकार सभाविषे आय प्राप्त हुए, तब नभचर अरु भूचर जेते कछु श्रोता थे, सो सब आय प्राप्त हुए, सभाविषे आइकरि नमस्कार करिके बैठ गये, जेते कछु सभाके लोक थे सो निस्पंद एकाग्र होइकरि स्थित भये, जैसे निस्पंद वायुकरि कमलोंकी पंक्ति अचल होती है, तैसे स्थित भये, भाटजन जो स्तुति करनेवाले थे, सो एक ओर स्थित भये, तब सूर्यकी किरणैं झरोंखेके मार्ग आय प्राप्त भईं, मानो किरणैं भी वसिष्ठजीके वचन श्रवण करने आई हैं, तब वसिष्ठजीकी ओर रामजी देखते भये, जैसे स्वामिकार्तिक शंकरकी ओर देखैं, जैसे कच बृहस्पतिकी ओर देखैं, जैसे प्रह्लाद शुक्रकी ओर देखैं तैसे वसिष्ठजीकी ओर रामजी देखते भये, जैसे भ्रमर भ्रमता भ्रमता आकाशमार्गते कमलपर आय बैठता है, तैसे रामजीकी दृष्टि औरको देखते देखते वसिष्ठजीपर आयस्थित भई, अरु वसिष्ठजी रामजीओरदेखत भये देखिकरि बोलत भये॥ वसिष्ठ उवाच॥ हे रघुनंदन! मैं जो तुमको उपदेश किया है, सो तुम कछु स्मरण किया, जो यह वचन कहे हैं, कैसे कहे हैं, जो परमार्थ बोधका कारण