पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१५०

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यणपटेशवर्णन-निर्वाणकरण ६. (१०३३) भी उपजे हैं। हे रामजी ! जीव पुर्यष्टकाविषे स्थित होकर जैसी जैसी भावना करता गया है, जैसे तैसे भासने लगा है, बहुरि तिसकी सत्ता पायकर अपने अपने विषयको ग्रहण करने लगे, अरु वास्तवते इंद्रियां भी कछु वस्तु नहीं, सब आत्माके आभासकार फुरती हैं, इंद्रियां अरु इंद्रियके अर्थ यह संवेदनते उपजे हैं, जैसे उपजे हैं, तैसे तुझको कहे हैं ॥ हे रामजी ! शुद्ध संवित् सत्तामात्रविषे जो अहं उल्लेख हुआ है, सो संवेदन हुई हैं, वही संवेदन जीवरूप पुर्यष्टकाभावको प्राप्त होकर बुद्धि मन अरु पंचतन्मात्राको उपजायकार जीवकला आपही तिनविषे प्रवेशकार स्थित भई है, तिसको पुर्यष्टको कहते हैं, परंतु यह उपजी भी स्पंदविषे है; आत्माविषे उपजना कछु नहीं, सो आत्मा न एक है, न अनेक हैं, परमात्मतत्त्व अस्ति अनामय है, अरु वेदना भी तिसविषे अनन्यरूप है ॥ हे रामजी । तिसविषे न कोऊ द्वैतकलना है, न कछु मनशक्ति है, केवल शीतसत्ता है, तिसको परमात्मा कहते हैं, सो मनसहित षट् इंद्रियोंते अतीत है, अचेतन चिन्मात्र है, तिसते जीव उत्पन्न हुआ है, यह भी उपदेशके निमित्त कहता हौं, वास्तवते कछु उपजा नहीं, केवल भ्रममात्र है, जहां जीव उपजा है, तहाँ तिसको अहं- भाव विपर्यय हुआ है, यही अविद्या है, सो उपदेशकरि उपदेशको पाए लीन हो जाती है, जैसे निर्मलकर जलकी मलिनता लीन हो जाती है, तैसे गुरु अरु शास्त्र उपदेशको पायकरि अविद्या लीन हो जाती है, तब भ्रमरूप आकार शांत हो जाते हैं, ज्ञानरूप आत्मा शेष रहता है, जिसविषे आकाश भी स्थूल हैं, जैसे परमाणुके आगे सुमेरु स्थूल होता है, तैसे आत्माके आगे आकाश स्थूल है । हे रामजी! आत्माके आगे जो स्थूलता भासती हैं, सो भ्रममात्र हैं, जो बडे उदार आरंभ भासते हैं, सो असत् हैं, तब अपर पदार्थकी क्या बात है । हे रामजी । आत्माविषे जगत् कछु नहीं पाया जाता. काहेते कि, जो वस्तु अस- म्यक ज्ञानकारकै भासती है, सो सम्यक् ज्ञानकार नहीं पाई जाती, जेते कछु जगज्जाल भासते हैं, सो सब मायामात्र हैं, अर्थ कछु सिद्ध नहीं होता, जैसे मुगतृष्णाका जल तनक पान किया नहीं जाता तैसे