पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१५१

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(१०३२) योगवासिष्ठः । । जगतुके पदार्थकार कछु परमार्थ सिद्ध नहीं होता. सब अज्ञानकरिकै भासते हैं ॥ हे रामजी ! जो वस्तु सम्यक् ज्ञानकार पाइये सो सत् जा- निये, जो सम्यक् ज्ञानकार न रहै, सो भ्रममात्र जानिये यह जीव पुर्य- एका अविद्धक भ्रम है, असतही सत् हो भासता है. जब गुरु अरु शास्त्रोंका विचार होता है. तब जगद्धम मिटि जाता है, अरु पुर्यष्टका- विषे स्थित होकर जैसी भावना करता है, तैसी सिद्ध होती है, जैसे बालक अपने परछाईंविषे वैताल कल्पता है; तैसे जीवकला अपने आपविषे देश काल तत्त्व आदिक कल्पती है भावनाके अनुसार तिसको भासते हैं, जैसे बीजते पत्र दास फूल फलादिक विस्तार होता है, तैसे तन्मात्रःते अपर भूतजात सब अंतर बाहर देश काल क्रिया कर्म हुआ है, आदि जीव फुरिकर जैसा संकल्प धारता भया है, तैसे हो भासा है, सो यह संवेदन भी आत्मासाथ अनन्यरूप है, जैसे मिर्च अरु तीक्ष्णता अनन्यरूप है, जैसे आकाशविषे शून्यता अनन्यरूप है, तैसे आत्म विषे सवेदन अनन्यरूप है, तिस सवेदनने उपजकारे निश्चय धारा कि, यह पदार्थ ऐसे हैं, यह ऐसे होवें, हो तसेही स्थित हैं, अन्यथा कदाचित नहीं होते, आदि जीव फ़रिकारे जेमा निश्चय धारा है, तिसीका नम नीति है, अरु स्वरूपते सर्व आत्मसत्ता है, आत्मसत्तही रूप धार कारे स्थित भइ है, जैसे एकही गन्नका रस शक्करखंडार्दिक आकारको पता है, जैसे एक मृत्तिका घट सठ टिंडादिक आकारको धारती है, तै आत्मतुः सर्व बानको पाती है, जैसे एकही जलका रस पत्र टास :फूल फलादिक़ होकार भासता है, तसे एकही आत्मसत्ता घट पट कंध आदिक आकार हो भासती है ॥ हेरामजी ! जैसे आदिजीव निश्चय किया है, जैसेही स्थित है; अन्यथा कदाचित नहीं होता, परंतु जगत् कालविषे ऐसें है वास्तवते न बिंब है, न प्रतिबिंब है, यह द्वैत- विषे होते हैं, सो द्रा कछु नहीं, केवळ चिंनिंद ब्रह्म आत्मतत्त्व अपने अपविवे स्थित है। देहादिक भी सब चिन्मत्र हैं ॥ हे रामजी। जैता कछु जगत् भासता है, सो आत्माका अकिंचनरूप है, जैसे जेवरी सर्प- रूप भासती, तसे आत्मा जंगवरूप हो भासताहै, जसे स्वर्ण भूषण हो भास्ता है, तैसे आत्मा दृश्यरूप हो भासता है, जैसे स्वर्णविषे भूषण कछु