पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१५३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

( १०३४) योगवासिष्ठ । दोनों अवस्थाविषे स्थावर जंगमरूपीजीव भटकते हैं, कबहूँ सुषुप्तिविषे स्थित होते हैं, कबहूँ स्वप्नविषे स्थित होते हैं इसप्रकार दोनों अवस्थाविषे जीव भटकते हैं, ॥ हे रामजी । सर्वका देह अंतवाहक है, तिसी देहकार चेष्टा करते हैं, कबहूँ स्थावरविषे जाते हैं, तब वृक्ष पत्थ- रादिक योनिको पाते हैं, जब स्वप्नविषे होते हैं, तब जंगम योनिको पाते हैं, सो भी कर्मवासनाके अनुसार पाते हैं, जब तामसी वासना घन होती है तब कल्पवृक्ष चिंतामण्यादिक स्वरूपको प्राप्त होते हैं, जब केवल तामसी घन मोहरूप होती है तब अपर वृक्ष पत्थरादिक योनिको पाते हैं इसका नाम सुषुप्ति है, सो लयघन मोहरूप है, अरु इसते इतर विक्षेपरूप स्वप्न अवस्था है, कबहूँ तिसविषे होता है, कबहूँ सुषुप्तिरूप स्थावर होता है । हे रामजी । सुषुप्ति अवस्थाविषे वासना सुषुप्तिरूप होती है, सो बारे उगती हैं, इसकरिकै मोहरूप है, अरु तिस सुषुप्तिते जब उतरता है, तब विक्षेपरूप स्वप्न होता है, जब बोध होवै, तब जाग्रत् अवस्थाको पावै, सो जाग्रत् दो प्रकारको है, सोई जाग्रत है, जो लय अरु विक्षेपताते रहित चेतन अवस्था है, तिसते रहित अपर मनोराज्य सब स्वप्नरूप हैं, एक जीवन्मुक्ति जाग्रत् है, दूसरी विदेहमुक्ति है, जीवन्मुक्ति तुरीयारूप है, विदेहमुक्ति तुरीयातीत है, यह अवस्था जीवको बोधकार प्राप्त होती है, अरु बोध पुरुष प्रयत्नकार होता है, अन्यथा नहीं होता ॥ हे रामजी । जीवका ऊरणा ज्ञानरूप है, जब दृश्यकी ओर लगता है, तब वहीरूप हो जाता है अरु जो सत्की ओर लगता है, तब सतरूप हो जाता है, जब दृश्यके सन्मुख होता है, तब दीर्घ भ्रमको देखता है, जीवके अंतर जो सृष्टिरूप हो फुरता है, सो भी आत्मसत्ताते इतर कछु वस्तु नहीं, जैसे बटलोहीविषे दाणेवत् जल उछलता है, सो जलते इतर कछु वस्तु नहीं, तैसे आत्माविना जीवके अंतर कछु अपर वस्तु नहीं, अपर सृष्टि जो भासती है सो मायामात्र है। हे रामजी ! जीवको स्वरूपके प्रमादकारिकै सृष्टि भासती है, जो सत्वत् हो गई है, तिसकारे नानाप्रकारका विश्व भासता है, अरु नानाप्रकारकी वासना ऊरती है, तिसकार बंधमान हुआ है, जब वासना क्षय होवै, तब