पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१५४

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यथार्थोपदेशवर्णन–निर्वाणप्रकरण ६. (१०३५) मुक्तिरूप है । है रामजी ! घनवासना मोहरूपका नाम सुषुप्ति जड अवे- स्था है, अरु क्षीण स्वरूप है, जब स्वरूपका प्रमाद होता है, तब दृश्य- विषे सद्बुद्धि होती है, तिसविषे प्रतीति होती है, तब नानाप्रकारकी वासना उदय होती है, अरु जब स्वरूपका साक्षात्कार होता है, तब संसारस- त्यता नाश हो जाती है, बहुरि वासना नहीं फुरती ॥ हे रामजी ! धनवा- सना तबलग फुरती है, जबलग इश्यकी सद्बुद्धि होती है, जब जगत्का अत्यंत अभाव हुआ, तब वासना भी नहीं रहती, जैसे भूषण गालीकार स्वर्ण किया तब भूषणबुद्धि नहीं रहती, जो अज्ञानकार वस्तु उपजी हैं, सो ज्ञानकारी लीन हो जाती हैं, सो वासनाभ्रम अबोधकारि उपजा है, बोधते लीन हो जाती है । हे रामजी ! घनवासनाकार सुषुप्ति जड अवस्था होती है, अरु तनु वासनाकार स्वप्न देखता है, घन वासना मोहकरि जीव स्थावर अवस्थाको प्राप्त होता है, अरु मध्य वासनाकरी तिर्यक् योनि पशु पक्षी सपदिकको प्राप्त होता है, अरु तनु वासनाकार मनुष्यादिक शरीरको पाता है, अरु नष्ट वासनाकरि मोक्षको पाता है । हे रामजी ! यह जगत् सब संकल्पकार रचा है, जो बाह्य घट पट आदिक देखता है, अरु ग्रहण करता है, सो एक अंतर देहविषे स्थित होकर वही बाह्य घट पट आदिक होकार स्थित होता है, तिनको ग्रहण करता है, ग्राह्यग्राहकका संबंध देखता है, यह मैं ग्रहण किया है, यह मैं लिया हैं, अरु जो ज्ञानवान है, सो न ग्रहण करनेका अभिमान करता है, न कछु त्यागनेका अभिमान करता है, तिसको अंतर बाहर सब चिदाकाश भासता है, चेतनसत्ता यह चमत्कार है, तीनों जगतरूप होकार वही प्रकाशता है, रंचकमात्र भी कछु अन्य नहीं, केवल आत्मसत्ता अपने आपविषे स्थित है, जैसे समुद्रविषे तरंग बुद्बुदे होकर भासते हैं, परंतु जलही जल है, जलते इतर कछु नहीं, तैसे आत्मा जगतरूप होकार भासता है, अपर द्वैतवस्तु कछु नहीं ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे यथार्थोपदेशवर्णने नाम पंचा- शत्तमः सर्गः ॥ ५० ॥