पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१५५

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( १०३६) योगवासिष्ठ । -एकपंचाशत्तमः सर्गः ५३. . नारायणावतारवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! जिस जीवको स्वप्नविषे, संसार उदय होता हैं, सो कल्पनामात्र होता है, न सत् है, न असत् है, जीवको एक फुरणेकार भ्रम भासता है तसे यह जाग्रत्अवस्था भ्रममात्र है, स्वप्न अरु जाग्रत एकरूप है, जैसे स्वप्नविषे जाग्रत्का एक क्षण भी दीर्घकाल होता है, जैसे स्वरूप प्रमादकार जाग्रत् भी दीर्घकाल भ्रम हुआ है, सत्को असत् जानता है, अरु असत्को सत् जानता है, जड़को चेतन जानता है, अरु चेतनको जड़ जानता है, विपर्यय ज्ञानकारिकै इसप्रकार जानता है, जैसे स्वप्नविषे एकही जीव अनेकताको प्राप्त होता है, तैसे जीव आदिक एकते अनेक होकारे भासता हैं, जैसे स्थाणुविषे चोरभ्रम भासता है, वैसे आत्माविषे तीनों जगद्धम भासते हैं, जैसे सुषुप्तिते स्वप्नभ्रम उदय होना है, तसे अद्वैततत्त्व आत्माविषे जगद्धम होता है, आत्मा अनंत सवगत है, जीवका बीजरूप है, जैसा तिसके आश्रय फुरणा होता है, तैसा सिद्ध होकार भामता हैं ॥ हे रामजी ! जिन पुरुषको स्वरूपकी स्थिति भई है, सो सदा निःसंग होकार विचरते हैं, जैसे पुंडरीकाक्ष विष्णुजी निःसंगता उपदेश करेगा, तिसको पायकार अर्जुन मुक्त होकारे विचरैगा, तैसे हे महाबाहो ! तुम भी विचरौ ॥ हे रामजी ! पांडवका पुत्र अर्जुन नाम जसे सुखसाथ जीवना व्यतीत करैगा, सर्व व्यवहारविषे भी सुखी स्वस्थ रहेगा, तैसे तू भी निःसंग होकार विचरु ॥ राम उवाच ॥ हे ब्राह्मण ! पाँडवका पुत्र अर्जुन कब होगा, अरु कैसे विष्णुजी तिसको निःसंग उपदेश करैगा १ ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! अस्ति तन्मात्र जो तत्त्व है, जिसविषे आत्मादि संज्ञा कल्पिकार कही है, सो आत्मसत्ता अपने आपविषे स्थित है, आदि अंतते रहित है, जैसे आकाशविषे आकाश स्थित हैं, तैसे निर्मलतत्त्व अपने आपविषे स्थित है, तिसविषे जगत् भ्रममात्र