पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१५६

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नारायणावतारवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. . ( १७३७) फुरता है, जैसे स्वर्णविषे भूषण फुरते हैं, जैसे समुद्रविषे तरंग फुरते हैं, तैसे आत्माविषे चतुर्दश प्रकारके भूतजात फुरते हैं, इस संसारजालविणे भूतप्राणी भ्रमते हैं, जैसे पक्षी जालविषे भ्रमते हैं, तैसे जगविषे जीव भ्रमते हैं, चंद्रमा सूर्य लोकपाल होकर स्थित हैं, पंच भूतका कर्म तिनने रचा है, कि यह पुण्य ग्रहण करने योग्य है, यह पाप त्यागने योग्य है, पुण्यकरि स्वर्गादिक सुख प्राप्त होता है, पापकर नरक प्राप्त होता है, यह मर्यादा लोकपालने स्थापन करी है, इसप्रकार संसाररूपी नदीविषे बहते हैं, कैसी संसारूपी नदी बहती है, अविच्छिन्नरूप भासती है, अरु नाशरूप क्षणक्षणविषे नष्ट होती है, जैसे नदीका वेग समान प्रवाह कारकै वही भासताहै, परंतु होता अपर है, क्षणक्षणविषे वह प्रथम जाता रहता है, तैसे संसार अपने कालविषे अविच्छिन्नरूप सत् भासताहै, अरु आत्माकी अपेक्षाकरिकै नाशरूरी है, क्षणक्षणविषे नष्ट होता है, तिस जगविषे वैवस्वत सूर्यका पुत्र यमराज लोकपाल बडा प्रतापवान् स्थित है, सो बड़ा तेजवान् है, अरु सब जीवको मारता है, ऐसे नेमको धारिकार प्रजाविषे स्थित है, आदि प्रवाह इसप्रकार हुआ है, तिस प्रति प्रवाह कार्यके कर्मविषे स्थित है, जीवको मारना अरु दंड करना यही उसका नेम है, अरु चित्तविणे पहाडकी नाईं स्थित है, सो यमराज चारों चारों युगनप्रति एक नेमकी धारता है, कि किसी जीवको मारना नहीं, कबहूँ अष्टवर्ष, कबहूँ बारह वर्षका नेम धारताहै, कबहूँ सप्तवर्ष, कबहूँ षोडशवर्षका नेम धारता है, तब उदासीनकी नाईं स्थित होता है, किसी को नहीं मारता ॥ तब पृथ्वीविषे निरंध्रभूत हो जाता है, चलनेको मार्ग नहीं रहता, तब कई दुष्ठ जीव होते हैं, जो जीवको दुःख देते हैं, तिसकार पृथ्वी भारी होती है, अरु दुःखी होती है,तिस पृथ्वीके भार उतारनेनिमित्त विष्णुजी अवतार धारिकार दुष्ट जीवको नाश करता हैं, अरु धर्ममागको दृढ़ करता है । हे रामजी ! इसप्रकार नेमको धारणेहारे थमको अनंत युग अपने व्यवहारको करते व्यतीत हो गये हैं, भूत अरु जगत् अनेक हो गये हैं,