पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१५७

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(१०३८) । योगवासिष्ठ । इस सृष्टिका जो अब वैवस्वत यम है, सो आगे नेम करेगा, द्रोदश वर्षपर्यंत किसीको न मारैगा ऐसा नेम करेगा तब जीव क्रूर कर्मोको करने लगेंगे, पृथ्वी भूतों साथ निरंध्र हो जावेगी, जैसे वृक्षसाथ गुच्छे संघट्ट हो जाते हैं तैसे पृथ्वी प्राणीसाथ संघट्ट हो जावैगी, तब पृथ्वी भारसाथ दुःखित होकार विष्णुजीकी शरण जावैगी, जैसे चोरते डरिकार खी भत्तीकी शरण जावै, तैसे पृथ्वी विष्णुकी शरण जावैगी, तब विष्णु दो देहको धारिकार पृथ्वीका भार उतारैगा, अरु सन्मार्ग स्थापन करेगा, अरु सब देवता अवतार धारिकार साथ आवेंगे, नरोविषे नायकभावको प्राप्त होवैगा, एक देहकार वसुदेवके गृहविषे पुत्ररूप कृष्ण नाम होवैगा, अरु दूसरे देहकार पांडवके गृह अर्जुन नाम होवैगा, युधिष्ठिर नाम धर्मको पुत्र होवैगा, समुद्र जिसकी मेखला है, ऐसी जो पृथ्वी है, तिसका राज्य करेगा, पांडवका पुत्र धर्मका वेत्ता तिसके चाचेका पुत्र दुर्योधन नाम होवैगा, तिसका अरु भीमका बडा युद्ध होवैगा, दोनों ओर संग्रामकी लालसा होवैगी, अठारह अक्षौहिणी सैन्य इकट्ठा होवैगा, तिसविषे बड़ा भयानक युद्ध होवैगा, तिनके बलकार हरि पृथ्वीका भार उतारैगा_।। हे रामजी ! तिस सैन्यके युद्धविषे विष्णुका जो अर्जुन नाम देह होवैगा, सो गांडीव धनुष धरैगा, सो प्रकृत स्वभावविषे स्थित होवैगा; हर्ष शोकादिक विकारसंयुक्त निर्धम होवैगा,सो युद्धविषे अपने बांधव संबंधी- को देखिकार मूच्छित होवैगा, मोह कायरताकार तिसके हाथते धनुष गिर पडेगा, अरु आतुर होवैगा, तब बोध देहकारि तिसको हरि उपदेश करेगा, दोनों सैन्यके मध्यविषे जब अर्जुन मोहित होकर गिरेगा, तब हार कहैगा, हे राजसिंह अर्जुन ! मनुष्यभावको क्यों प्राप्त हुआ है, अरु मोहित क्यों हुआ है, इस कायरताका त्याग करु, तू परम प्रकाश आत्म- तत्त्व है, सर्वका आत्मा तू आनंदअविनाशी है, आदि अंत मध्यते रहित है, वृथाकायरताको प्राप्त क्यों हुआ है, सर्वव्यापी परम अंकुररूप है। अरु निर्मल है, दुःखके स्पर्शते रहित है, नित्य शुद्ध निरामय है ॥ है। अर्जुन ! आत्मा न जन्मता है, न मरता है, होयकार बहुवारि कछु अपर