पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१५९

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तिसकी आममानवृत्ति नहीं कराकर योगी कर्म कप योगवासिष्ठ । भागी होता है, बहुत मिलिकारे कर्म किया, अरु तिसविर्षे एकही अभि- मानी होकार दुःख पाता है, सो बडा आश्चर्य हैं, देह इंद्रियकर कर्म होते हैं अरु अभिमानी होकरि सुखदुःखविर्षे रागद्वेष होकार जीव जलता है, ताते इनका संग अभिमान त्यागकर अपने स्वरूपविषे स्थित होउ, मनकरि बुद्धिकार केवल इंद्रियोंकर योगी कर्म करता है, अरु तिनविषे अभिमानवृत्ति नहीं करता, निःसंग होकर करता है, तिसकी आत्मपदकी सिद्धताका कारण होते हैं ॥ हे अर्जुन ! इस जीवको अहंकारही दुःखदायक हैं, अनात्मविषे आत्मअभिमान करता है, तिस अभिमानसहित जो कछु कर्म करता है, सो सब दुःखदायक होते हैं, अरु जो अभिमानरूपी विषके चूर्णते रहित होकार चेष्टा करताहै, लेता है, देता है, सो दुःखका कारण नहीं होता, सदा सुखरूप है । हे अर्जुन ! सुंदर शरीर होवै, अरु विष्ठा मलसाथ मलिन किया होवै, तब तिसकी शोभा जाती रहती है, तैसे बुद्धिमान् भी होवै, अरु शास्त्रका वेत्ता होवे, इत्यादिक गुणोंकार संपन्न होवे, अरु अनात्मविषे आत्मअभिमान होवे, तिसकी शोभा जाती रहती है, अरु जो निर्मम निरहंकार अरु सुखदुःखविषे सम है, ऐसा क्षमावान है, सो शुभ कर्म करै, अथवा अशुभ करे, तिसको किसी कर्मका स्पर्श नहीं होता ॥. हे अर्जुन ! ऐसे निश्चयवान् होकार कर्मको करौ, ताते हे पांडवपुत्र ! यह युद्ध कर्म तेरा धर्म है, सो कर, अपना धर्म अति क्रूर भी होवै, परंतु कल्याण करता है, अरु पराया धर्म उत्तम भी होवै, तो भी दुःख- दायक है, अपना धर्म अमृतकी नाईं अल्प भी सुखदायक है ॥ हे अर्जुन ! भावे तैसा कर्म करु, जब तेरेविषे अहंभाव न होवैगा, तब तुझको स्पर्श न करेगा, संग अभिमानको त्यागिकार योगविषे स्थित होकर कर्म करु, जो निःसंग पुरुष है, तिसको कोङ कर्म आनि प्राप्त होवै, तिसको करता हुआ बंधमान नहीं होता, ताते ब्रह्म- रूप होकार ब्रह्ममय कमको करु, तब शीघ्रही ब्रह्मरूप हो जावैगा, जो कछु आचार कर्म होवै, सो ब्रह्मविषे अर्पण करु ॥ हे अर्जुन ! सर्व कर्म ईश्वरविषे समर्पण करु, सो ईश्वर आत्मा है, निर्मल