पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१६

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विश्रामदृढीकरणवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६.


आनंदरूप महागंभीर कहेहैं, अब और भी बोधका कारण अरु अज्ञानरूप शत्रु नाश करता इंदुप्रमाण वचन हैं, तिनको सुन, आत्मसिद्धांत निरंतर शास्त्र तुझको कहता हौं । हे रामजी! वैराग्य, अरु अभ्यास,अरु तत्त्वका विचार, इन कारकै संसारसमुद्रको तरता है, सम्यक्त तत्त्वके बोधकार दुर्बोध निवर्त हो जाता है, तब वासनाका आवेश नष्ट हो जाता है, अरु निर्दुःख पदको प्राप्त हो जाता है, कैसा पद है, देशकाल वस्तुके परिच्छेदते रहित है, सोई ब्रह्म जगतरूप होइकारे स्थित भयाहै, अरु भ्रमूकारकै द्वैतकी नाई, भासताहै, जो सब भावकरिकै अविच्छिन्न है, सर्वत्र ब्रह्म है, इसप्रकार मत्स्वरूपजानिकार शांतिमान् होहु॥हे रामजी ! केवल ब्रह्मतत्त्व अपने आपविषे स्थित है, न कछु चित्त है,न अविद्या है, न मन है, न जीव है, यह सब कलना ब्रह्मविषे भ्रमकरिकै पडी फुरती हैं, जो स्पंद ऊरणा दृश्य है, अरु चित्त हैं, सो कलनारूप संभ्रम है, ब्रह्मते इतर पदार्थ कोऊ नहीं ॥ हे रामजी ! स्वर्ग पाताल भूमिविषे सदाशिवते आदि अरु तृणपर्यंत जो कछु दृश्य है, सो सब परब्रह्म है, चिद्रूपते अन्य कछु नहीं, उदासीन अरू मित्र बांधव आदिते लेकर सब ब्रह्म है, जबलग अज्ञानकलनाकार जगतविषे स्थितबुद्धि हैं, अरु ब्रह्मभाव नानात्व हैं, तबलग चित्तादि कलना होती है, अरु जबलग देहविषे अहंभाव है, अरु अनात्मदृश्यविषे ममत्व है, तबलग चित्तादिक भ्रम होता है, जबलग संतजन अरु सच्छास्त्रोंकरि ऊंचे पदको नहीं प्राप्त भया, अरु मूर्खता क्षीण नहीं भई, तबलग चित्तादिक भ्रम होता है । है रामजी! जबलग देहाभिमान शिथिलताको नहीं प्राप्त भया, अरु ससारकी भावना नहीं मिटी, अरु सम्यक ज्ञानकारकै स्थिति नहीं पाई, जबलग चित्तादिक प्रकट हैं, जबलग अज्ञानकरिकै अंध है, जबलग विषयोंकी आशाके आवेशकारि मूर्छित है, जबलग मोहमूर्छाते उठा नहीं तबलग चित्तादिक कलना होती है । हे रामजी ! जबलग आशारूपी विषकी गंध हृदयरूपी वनविषे होती हैं, तबलग विचाररूपी चकोर तहां नहीं प्राप्त होता, भोगवासना नहीं मिटतीहै, जब भोगोंकी आशा मिटजावै, अरु सत्य शीत-