पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१६२

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अर्जुनोपदेशनर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१०४३ ) सर्व भूतों विषे स्थित आत्माको देखेगा, अरु सर्व भूत आत्माविषे स्थित देवैगा, अरु सर्वत्रविषे तुझको समबुद्धि होवैगी, तब स्वरूपविषे तुझको दृढ़ स्थिति होवैगी ॥ हे अर्जुन ! जो सर्व भूतों विषे स्थित आत्माको देखता है, अरु एकत्वभावकरि भजन करता है आत्माते इतर जिसको अपर भावना नहीं फुरती, ऐसे एकत्वभावविषे जो स्थित हैं, सो सर्वप्रकार वर्तमान भी हैं तौभी बहुरि जन्म मरणविपे नहीं आते ॥ हे अर्जुन ! जिसविषे सर्व शब्दों का अर्थ है, अरु सर्व शब्दोंविषै जो एक अर्थरूप है, ऐसी जो आत्मसत्ता है, सो न सत् है, न असत् है, संत असते जो रहित सत्ता है, सो आत्मसत्ता है, सो सर्व लोकके चित्त- विषे प्रकाशरूप कारकै स्थित है, सो आत्मा है ॥ हे भारत । जैसे सर्व दूधविषे वृत स्थित होता है, अरु जलविषेष रस स्थित होता है, जैसे मैं सर्व लोकके अंतर तत्त्वरूप स्थित हौं, सर्व शरीरविषे जो चेतन है, तिस चेतनमुक्त जो सूक्ष्म अनुभवसत्ता है, सो मैं हौं, सर्वगत आत्मा स्थित हौं, जैसे सर्व दूधविषे घृत स्थित हैं, तैसे सर्व पदार्थके अंतर मैं आत्मा स्थित हौं, जैसे रत्नके अंतर बाहर प्रकाश होता है, तैसे मैं सर्व "पदार्थके अंतर बाहर स्थित हौं, जैसे अनेक घंटके अंतर बाहर एकही आकाश स्थित है, तैसे मैं अनेक देहको अंतर बाहर अव्यक्तस्वरूप स्थित हौं । हे अर्जुन ! ब्रह्माते आदि तृणपर्यंत सर्व पदार्थविषे सत्ता समानकारिकै मैं स्थित हौं, अरु नित्य अजन्मा हौं, मेरेविषे जो चित्त- संवेदन फुरी है, सो ब्रह्मसत्ताकी नाई होत भई हैं, अरु फुरणेकारकै जगतरूप ही भासता है, अहंता ममता आदिकको प्राप्त भई हैं, अरु आत्मतत्त्व अपने आपविषे स्थित है, अपर द्वैत कछु नहीं ॥ हे अर्जुन ! आत्मा सबका साक्षीरूप है, तिसको जगत्का सुखदुःखस्पर्श नहीं करता, जैसे दुर्पण प्रतिबिंबको ग्रहण करता है, परंतु सबविषे सम है, किसीकार खेदवान् नहीं होता, तैसे सब पदार्थ अवस्था साक्षीभूत आत्मा है, परंतु किसीको स्पर्श नहीं करता, अरु शरीरके नाशविषे तिसका नाश नहीं होता, जो ऐसे देखता है, सो यथार्थ देखता है ॥ हे अर्जुन ! पृथ्वीविषे गैध मैं हौं, अरु जलविषे रस मैं हौं, पवनविषे स्पर्श अरु स्पंदशक्ति मैं