पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१६४

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अर्जुनोपदेशे सर्वब्रह्मप्रतिपादनवर्णन–निर्वाणप्रकरण ६. (१०४५) भूषणका निवास है, तैसे आत्माविषे इनका असत् निवास है । हे। भारत ! जिसको इंद्रियोंके भोग स्पर्श भ्रमरूप चलायमान नहीं कर सकते, अरु सुखदुःख जीवको सम हैं, तिस पुरुषको मोक्षकी प्राप्ति होती है ॥ हे अर्जुन ! आत्मा नित्य शुद्ध सर्वरूप है, अरु इंद्रियोंके स्पर्श असत्रूप हैं, सो असत्रूपविषे सतरूप आत्माको मोह नहीं सकते, यह अल्पमात्र तुच्छ है, कछु वस्तु नहीं, अरु बोधरूप आत्मतत्त्व सर्व- गह शुद्धरूप हैं, तिसको इनका स्पर्श कैसे होवे, सत्को असत् स्पर्श नहीं कर सकता, जैसे जेवरीविषे सर्प आभास होता हैं, सो जेवरीको स्पर्श नहीं कर सकता, अरु जैसे मूर्तिकी अग्नि कागजको जलाय नहीं सकती, अरु जैसे स्वप्नके क्षोभ जाग्रत् पुरुषको स्पर्श नहीं कर सकते, तैसे इंद्रियां अरु तिनके विषय आत्माको स्पर्श नहीं कर सकते ।। हे अर्जुन ! जो सत् है, सो असत् नहीं होता, अरु जो असत् है सो सत् नहीं होता, सुखदुःखादिक असतरूप हैं, कछु है नहीं, अरू परमात्मा सतरूप है, जगत्के सवस्तु घटादिक अरु आकाशके असत फूलादिक तिन दोनोंके त्यागते पाछे जो निष्किचन महासत्पद है, तिसवित्रे स्थित होउ । हे अर्जुन ! ज्ञानवान् पुरुष इष्ट अनिष्टविषे चलायमान नहीं होता, इष्ट सुखकार हर्षवान नहीं होता, अनिष्ट दुःखकारि शोक- वान् नहीं होता,अरु चेतन पाषाणवत शरीरविषे स्थित होता है । हे साधो! यह चित्त भी जड़ है अरु देह इंद्रियादिक भी जड़ हैं, अरु आत्मा चेतन है, इनके साथ मिला हुआ आपको देह क्यों देखता है, चित्त अरु देह भी आपसमें भिन्न भिन्न हैं, देहके नष्ट हुए चित्त नष्ट नहीं होता, अरु चित्तके नष्ट हुए देह नष्ट नहीं होता इनके नष्ट हुए जो आपको नष्ट होता मानता है, अरु इनके सुख दुःख साथ सुखी दुःखी होता है सो महामूर्ख है । हे अर्जुन ! स्वरूपके प्रमाद कारकै देहादिकविषे अहंप्रतीति करता है, अरु कृत भोक्ता आपको मानता है, जब आत्माका बोध होता है, तब आपको अकर्ता अभोक्ता अद्वैत देखता है, जैसे जेवरीके अज्ञानकारि सर्प भासता है, अरु जेवरीके बोध- करि सर्पका अभाव होता है, तैसे आत्माके अज्ञानकारि देह इंद्रियों के