पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१६५

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( १८४६) योगवासिष्ठ । सुख दुःख भासते हैं, अरु आत्मज्ञानकरि सुखदुःखका अभाव हो जाता हैं ॥ हे अर्जुन ! यह विश्व एक अज ब्रह्मस्वरूप हैं, न कोऊ जन्मता है, न मरता है, यह सत् उपदेश है, प्रबोधकारि ऐसे जानता हैं ॥ हे अर्जुन ! ब्रह्मरूपी समुद्रविषे तू एक तरंग कुरा हैं, केतक काल रहिकै बहुरि तिसीविषे लीन हो जावैगा, ताते तेरा स्वरूप निरामय ब्रह्म है, सब जगत् ब्रह्मका स्पंद है, समय पायकार दृष्टि आता है, ताते मान मद् शोक सुख दुःख सब असत्रूप हैं, तू शांतिमान हो । हे अर्जुन ! प्रथम तौ तू ब्रह्ममय युद्ध करु, जेती कछु अक्षौहिणी सैन्य है, सो सब अनुभवकार नाश कर, जो यह द्वैत कछु नहीं, एकही सर्वदा परब्रह्मरूप स्थित है, यह ब्रह्मर्मय युद्ध कर, अरु सुख दुःख लाभ अलाभ अरु जय अजय ब्रह्मयुद्धविषे इनको एकता करु, जो कछु ब्रह्माते लेकर तृणपर्यंत - जगत् भासता है, सो सब ब्रह्मही है, ब्रह्मते इतर कछु नहीं, ऐसे जानिकै लाभअलाभविषे सम होकार स्थित होउ, अपर चितवना कछु न करु ॥ हे अर्जुन !. जड शरीरसाथ कर्म स्वाभाविक होते हैं, जैसे वायुका फुरणा स्वाभाविक होता है, तैसे शरीरकारि कर्म स्वाभाविक होते हैं । है अर्जुन ! जो कछु कार्य करे, अरु भोजन करे, जो कछु यजन करे, दान करै, सो आत्माहीविषे अर्पण कर, अरु सदा आत्मसत्ताविषे स्थित रहु, अरु सबको आत्मरूप देख ॥ हे अर्जुन ! जो किसीके अंतर दृढ़ निश्चय होता है, सोई रूप उसको भासता है, जब तू इसप्रकार अभ्यास करेगा; तब ब्रह्मरूप हो जावैगा, इसविषे संशय कछु नहीं ॥ हे अर्जुन ! कमविषे जो आत्माको अकर्ता देखता है; अरु अकत्तजी है, अकरणा अभिमानसहित तिसको करता देखता है, सो मनुष्यविषे बुद्धिमान है, अरु संपूर्ण कर्मोंका कर्ता भी है, कर्तव्य कछु न रहै, यह अर्थ है ॥ हे अर्जुन ! कमक फलकी इच्छा भी न होवे, अरु कमविषे विरसता भी न होवे, जो मैं न करौं, योगविषे स्थित होकार कर्मको कर ॥ हे धनं- जय ! कर्तृत्व अभिमान अरु फलकी वांछाको त्यागिकारे कर्म करु; जो कर्मोके फल अरु संगको त्यागिकार नित्य तृप्त हुआ है, सो कर्ता हुआ भी कुछ नहीं करता, कार्य अकार्यको कर्ता भी नहीं करती ॥