पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१६६

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जीवनिर्णयवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१०४७ ) हे अर्जुन ! जिसने सर्व आरंभों विषे कामनासंकल्पका त्याग किया है, ज्ञान अग्निकरि कर्म जलाए हैं, तिसको बुद्धिमान पंडित कहते हैं, जो सम आत्माविषे स्थित हैं, सर्व अर्थविषे निस्पृह है, निद्रसत्ता स्थित यथाप्राप्त वर्तता है, सो पृथ्वीका भूषण है, समुद्रकी नाई अचल है, अरु अपने आपविषे तृप्त है, जैसे समुद्रविषे अनिच्छित जल प्रवेश करता है, तैसे ज्ञानवाविषे सुख प्रवेश करते हैं, सो शतिरूप सब कामनाते रहित है ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे अर्जुनोपदेशे सर्वब्रह्मप्रतिपादन- वर्णनं नाम त्रिपंचाशत्तमः सर्गः ॥ २३ ॥ चतुःपंचाशत्तमः सर्गः ५४. जीवनिर्णयवर्णनम् । श्रीभगवानुवाच ॥ हे अर्जुन ! तू आत्मा है, सो कैसा आत्मा हैं, जो देश काल वस्तुके परिच्छेदते रहित है, अविनाशी है, अरु अजर है, अजर कहिये-परिणामते रहित हैं। हे अर्जुन ! तू शोक मंत कर, यह जो तुझको जगत् भासता है, सो अज्ञान कारकै भासता है, अज्ञान कहिये अपना प्रमाद, अरु प्रमाद कहिये अनात्मविषे आत्माभिमान, इसका नाम अज्ञान है ॥ हे अर्जुन ! यह जो संसाररूप तेरा देह है, इसविखे "अभिमान मत कर, यह मिथ्या है, इसकारि दुःख होता है, अरु तू असंग है, अविनाशी है, तेरा नाश कदाचित् नहीं होता ॥ हे अर्जुन ! जो विनाशरूप है, तिसका होना कदाचित् नहीं, अरु जो सत्य है, तिस- का अभाव होना कदाचित् नहीं, तत्त्ववेत्ताने इनदोनोंका निर्णय कि- या है । हे अर्जुन ! तिसको तू अविनाशी जान, जिसकरि यह सर्व प्रकाशता है, तिसके विनाश करनेको कोई समर्थ नहीं ॥ हे अर्जुन ! सो तू ऐसा है, अरु यह आत्मा सर्वका अपना आप है, तिसका विनाश कैसे होवै १ अरु अज्ञानी मनुष्य तिसका विनाश होना मानते हैं, ॥ अर्जुन उवाच ॥ हे भगवन् ! तुम कहते हो, आत्मा अविनाशी है, अरु