पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१६७

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( १०४८ ) योगवासिष्ठ । सबका अपना आप है, तब उसका क्यों कर नाश होता है ॥ श्रीभगवा- नुवाच ।। हे अर्जुन ! तू सत्य कहता है, परमार्थते किसीका नाश नहीं होता परंतु अज्ञान कारकै उनका नाश होता है, तिनको मृत्यु ग्रासि लेता है ॥ हेअर्जुन ! तू आत्मवेत्ता होउ, सो आत्मा एक है, अरु अ- द्वैत है, जिसविषे एक कहना भी नहीं संभवता, तब द्वैत कहां होवे ।। अर्जुन उवाच ॥ हे भगवन् ! तुम कहते हौ, आत्मा एक है, तब मृत्यु भी द्वितीय न भयो, अरु लोक मरते हैं, मरिकै नरक स्वर्ग भोगते हैं, जब मृत्यु नहीं, तब लोक क्यों मरते हैं, अरु पाप पुण्य क्यों भोगते है ॥ श्रीभगवानुवाच ॥ हे अर्जुन ! न कोऊ मरताहै, न जन्मता है, यह स्वप्नकी नाईं मिथ्या कल्पना है, जैसे निद्रादोषकारि जन्म अरु मरण भासता हैं, तैसे संसारविषे यह जन्म मरण भासता है, सो अज्ञानकारिकै भासता है,अज्ञान नाम फुरणेका है तिस ऊरणेहीकरि नरक अरु स्वर्ग कल्पा है । हे अर्जुन जैसे यह जीव भोगता है, सो तू श्रवण कर, अपने स्वरूप प्रमाद होनेकर आगे संकल्पके शरीर रचे हैं, पुर्यष्टका कहिये सो क्या है, पृथ्वी जल अग्नि वायु आकाश मन बुद्धि अहंकार तिसविषे जीव प्रवेश करता है, तिससाथ मिलकार जैसी वासना करता है, तैसीही आगे भोगता है, वासना तीन प्रकारकी है, एक सात्त्विकी, एक राजसी, एक तामसी है, जैसी वासना होती है, तैसा स्वर्ग नरक बनजाता है, सात्त्वि- की वासनाते स्वर्ग बन जाता हैं, इतरते नरकादिक बन जाते हैं; स्वर्ग नरक केवल वासनामात्र है, वास्तवते न कोऊ स्वर्ग है, न कोङ नरक है, न कोऊ मरता है, न जन्मता है, केवल एक आत्माही ज्योंका त्यों स्थित है, परंतु यह जगत्भास भ्रमकरिके भासता है, अज्ञानकरिकै चिरकाल वासनाका अभ्यास किया है, तिसकार भ्रमको देखता है। अर्जुन उवाच॥ हे जगत्के पति | नरकस्वर्गादिक योनिको जगविषे यह जीव देखता है, तिस नानाप्रकारके देखनेविषे कारण कौन है ? ॥ श्रीभगवानुवाच॥ हे अर्जुन ! अज्ञानकरिकै जो अनात्मविषे आत्मअभिमान हुआ है, तिसकार जगदको सत् जानने लगा है, सत् जानिकार वासना करने लगा है, बहुरि जैसे जैसे जगत्को सतु जानिकार वासना करता है,