पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१६८

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जीवनिर्णयवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६, (१०४९) तैसे जगभ्रमको देखता है; जब इसको आत्मविचार उपजता है, तब जगत्को स्वकी नाईं देखता है, अरु वासना भी क्षय हो जाती है, जब वासना क्षय होती हैं, तब कल्याणको प्राप्त होता है । अर्जुन उवाच ॥ हे भगवन् ! चिर अभ्यासकार जो जो संसारभ्रम दृढ़ रहा है, सो किसप्रकार उपजता है, अरु किसप्रकार लीन होवैगा ॥ श्रीभगवानु- वाच ॥ हे अर्जुन 1 मूर्खता अज्ञानताकारकै जो अनात्म देहादिकविषे आत्मभावना होती है, तिसकार जगतको सत् जानि वासना करताहै। तिस वासनाके अनुसार जगद्रमको देखता है, जब स्वरूपका अभ्यास करता है, तब वासना नष्ट हो जाती है. ताते हे अर्जुन ! तू स्वरूपका अभ्यास कर, अहं मम आदिक वासनाको त्यागिकार केवल आत्मा- की भावना कुरु ॥ हे अर्जुन ! यह देह वासनारूप है, जब वासना निवृत्त होगी, तब देहभी लीन हो जावैगा, जब देह लीन भया, तब देश काल क्रिया जन्ममरण भी न रहेंगे, यह अपनेही संकल्पकार उठे हैं; भ्रमरूप हैं, तिनकी वासनाकार वेष्टित हुआ जीव भटकता है, जब आत्मबोध होता है, तब वासनाते मुक्त होता है, निरालंब असंकल्प अविनाशी आत्मतत्त्वको पाता है, तिसीको मोक्ष कहते हैं, जिसकी वासना क्षय हुई है ॥ हे अर्जुन ! जब जीवको तत्त्वबोध होता है, तब वासनारूपी जालते मुक्त होता है, जो वासनाते मुक्त हुआ सो मुक्त हुवा जो पुरुष सर्व धर्म परायणभी है, अरु सर्वज्ञ है, शास्त्रोंका वेत्ता भी है, परंतु वासनाते मुक्त नहीं हुआ, सो सर्व ओरते बद्ध है, जैसे दृष्टिके दोषकार निर्मल आकाशविष तरुवरे मोरके पुच्छवत भासते हैं, तैसे मूर्खको शुद्ध आत्माविषे वासनारूपी मल जगत् भासता है, जैसे पिंजरेविपे पक्षी बाँधा होता है, तैसे वह बद्ध होता है, जिसके अंतर वासना है, सो बद्ध हैं, अरु जिसके अंतर वासना नहीं, तिसको मोक्ष जान ।। हे अर्जुन ! जिसके अंतर जगत्की वासना है, अरु बड़ी प्रभु- तासंयुक्त दृष्ट आता है, तो भी दरिद्री है, अरु दुःखका भागी है, अरु जिसकी वासना नष्ट भई है, अरु प्रभुताते रहित दृष्ट आता है, तो भी बड़ा प्रभुतावान है ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे जीवनि- र्णयवर्णनं नाम चतुःपचाशत्तमः सर्गः ॥२४॥