पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(८९८ )
योगवासिष्ठ।

लता, संतुष्टता हृदयविषे आय प्राप्त होवै, तब चित्तरूपी भ्रम निवृत्त हो जाताहै, जब सोहि अरु तृष्णा निवर्त करिये अरु नित्य संवित् होवै, तब चित्त शांत भूमिकाको प्राप्त होता है॥ हे रामजी! जिस पुरुषकी स्थिति स्वरूपविषे भई है, सो आपको देहते दूर देखता हैं, तिस सम्यक‍्दर्शीके चित्तकी भूमिका कहीहै, जब अनंत चैतन्य तत्त्वकी भावना होतीहै, अरु दृश्यको त्यागिकरि आत्मरूपविषे प्राप्त होताहै तब वह पुरुष सब जगत‍्को अपना अंगही देखता, अर्थ यह कि, अपना सब स्वरूप देखताहै, ऐसे जो आत्मरूप देखताहै, तिसको जीवत्वादिक भ्रम कहा हैं, जब अज्ञानभ्रम निवृत्त होता है, तब परम अद्वैतपद उदय होता है जैसे रात्रिके क्षीण हुए सूर्य उदय होता है, तैसे मोहके निवर्त हुए आत्मतत्त्वका साक्षात्कार होता है, जब स्वरूपका साक्षात्कार होताहै, तब चित्त नष्ट होजाताहै, जैसे सूखा पत्र अग्निविषे दग्ध हो जाता है, तैसे ज्ञानवान‍्का चित्त नष्ट हो जाता है॥ हे रामजी! जीवन्मुक्त जो महात्मा पुरुष है, अरु परावरदर्शी है, सर्वत्र ब्रह्म जिसको दृष्ट आया है तिसका चित्त सत्यपदको प्राप्त होता है, सो चित्त सत्य कहता है, अरु तिसविषे वासना भी दृष्ट नहीं आती है, सो चेतन मन है, वह चित्त सत्यपदको प्राप्त भया है यह जगत् ज्ञानवान‍्को लीलामात्र भासता है, अरु अंतरते शांतरूप है, नित्यतृप्त है, सर्वदा उसको आत्मज्योति भासतीहै, विवेककरिकै उसके चित्तसों जगत्की सत्ता निवर्त हो गई है, अरु स्वरूपविषे स्थिति पाईहै, सो चित्तसत्ता कहाती है बहुरि वह कर्म चेष्टा करता भी दृष्टआता है, अरु मोहको नहीं प्राप्त होता, जैसे भूना बीज उगता नहीं, तैसे ज्ञानीको चेष्टा जन्मका कारण नहीं, अरु जो अज्ञानी हैं, तिसकी वासना मोहसयुक्त है, जैसे कच्चा बीज उगता है, तैसे अज्ञानी वासना करिकै बहुर बहुरि जन्म लेता है, अरु जिस चित्तसों आसक्ति निवर्त भई है, सो तिसकी वासना जन्मका कारण नहीं वह चित्तसत्ता कहानी है॥ हे रामजी! जिन पुरुषोंने पानेयोग्य पद पाया है, अरु ज्ञानाग्नि करिकै चित्तको दग्ध किया है, सो बहुरि जन्म नहीं लेता, जेता कछु जगत् हैं, सो तिसको सब ब्रह्मरूप है, जैसे वृक्ष अरु तरु नाममात्र हैं, वस्तुते