पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१७०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

श्रीकृष्णसंबादे अर्जुनविश्रांतिवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१०५१ ) यह मूर्तियाँ स्पष्ट भासती हैं, तो भी आकाशरूप हैं, जैसे स्वप्नसृष्टि आकाशरूप होती है, तैसे यह भी हैं, आकाश अरु कंधविरें भेद नहीं, परंतु आश्चर्य है, कि भेद भासता है, जैसे मनोराज्य स्वप्नपुरविषे जगत् मनके फुरणेकार भासता है, अरु अफ़र हुए लय हो जाता है, सो मनो- मात्र है, तैसे यह जगत् मनोमात्र है, आकाशते भी शून्यरूप है, जैसे स्वप्नपुर अरु मनोराज्यविषे एक क्षणमें बडे कालका अनुभव होता है, पूर्वरूपके विस्मरण कार सत् हो भासता है, तैसे यह जगत् सत् हो भासता है, जबलग प्रभाव होता है, तबलग भासता है, जब इस क्रमकारकै आत्माको देखता है, तब जगद्धम निवृत्त हो जाता है, प्रगट देखता हैं। परंतु लीन हो जाता है, शरत्कालके आकाशवत् निर्मल भासता है, जैसे चितेरेके मनविषे चित्र फुरते हैं, सो आकाशरूप है, तैसे यह जगत् आकाशरूप है ॥ हे अर्जुन ! भाव अभाव वृत्तिको त्यागिकरि स्वरूप- विषे स्थित होहु, तब आकाशवत् निर्मल हो जावैगा, जैसे मेघकी प्रवृत्तिविषे भी आकाश निर्मल होता है; अरु निवृत्तिविषे भी निर्मल होता है, तैसे तु पदार्थ के भावअभावविषे निर्मल है, जेते कछु पदार्थ भासते हैं, सो सब आकाशरूप हैं, जैसे चितेरेके मनविषे पुतलियाँ भासती हैं, तैसे यह जगत् आकाशरूप है, जैसे एक क्षणविषे मनके ऊरणेकार नानाप्रकारके पदार्थ भासि आते हैं, अफ़र हुए लीन हो जाते हैं, तैसे प्रमाकरिकै जगत् भासता है, आत्माके जाननेते लीन हो जाता हैं, अरु आत्माविपे निर्वाणरूप है, आत्माविर्षे एक निमेषके फुरणेकार प्रमादते वज्रसारकी नाई दृढ हो भासता है, अरु चित्तके ऊरणेकार यह सत् भासता है, सब जगत् आकाशरूप है, द्वैत कछु हुआ नहीं, बडा आश्चर्य है, कि आकाशपर मूर्तियां लिखी हैं, अरु नानारूप रमणीय होकर भासती हैं, अरु मनको मोहती हैं, ॥ हे अर्जुन ! यही आश्चर्य है, कि कछु है नहीं, अरु नानाप्रकारके रंग भासते हैं, आकाशरूपी नीला ताल है, चंद्रमा तारे आदिक तिसविषे फूल खिले हैं, अरु मेघरूपी तिनको पत्र लगे हैं ॥ हे अर्जुन ! और आश्चर्य देख, चित्र भी तब होता है, जब प्रथम तिसंका आधार भीत