पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१७१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

( १०५२ ) योगवासिष्ठ । अथवा वस्त्र होता है, अरु यहां चित्र प्रथम उत्पन्न होते हैं, आधारभूत कंध पाछे बनती है, प्रथम यह मूर्तियाँ चित्र बने हैं, अरु पाछे भीत हुई है, यह आश्चर्य है । हे अर्जुन ! यह मायाकी प्रधानता हैं, जो वास्तव आका- शरूप चितेरेने आकाशविषे आकाशरूप पुतली रची है, आकाशविषे आकाशरूप पुतलियां उपजी हैं, अरु आकाशविषे लीन होती हैं,

  • आकाशहीको भोजन करती हैं, अरु आकाशहीको आकाश देखता

है, आकाशही यह सृष्टि है, आकाशहीरूप आकाश आत्माविषे आका- शरूप स्थित है ॥ हे अर्जुन ! वास्तवते आत्मा ऐसे हैं, तिस ऐसे अद्वैतरूप आत्माविषे जो उत्थान हुआ है, तिस उत्थानकारि उसको स्वरूपका प्रमाद हुआ है, तिसकार आगे दृश्यभ्रमको देखता है, अरु अनेक वासना होती हैं, वासनारूपी जेवरीसाथ वांधा हुआ भटकता हैं, वासनाकार आवराहुआ अहं त्वं आदिकं शब्दों को जानने लगता है. अरुनानाप्रकारके भ्रमको देखता है, तो भी स्वरूप ज्योंका त्यों है, जैसे दर्पणविषे प्रतिबिंब पडता हैं, अरु दर्पण ज्योंका. त्यों रहता है; तैसे आत्माविषे जगत् प्रतिबिंबित होता है, अरु आत्मा छेदभेदते रहित है, ब्रह्मही ब्रह्मविषे स्थित है, जब सर्व वही है, तब छेद भेद किसका हो, जैसे जलविषे तरंग बुद्बुदे होते हैं, सो जलरूप हैं, तैसे यह सब ब्रह्महीकरि पूर्ण है, तिसविषे द्वैत कछु नहीं, जैसे आकाशविषे आकाश स्थित है, तैसे आत्माविषे आत्मा स्थित है, तिसविषे वास- वासक कल्पना कोई नहीं, परंतु स्वरूपके प्रभादकार वासवासक भेद होता है, जब स्वरूपका ज्ञान होता है, तब वासना नष्ट हो जाती है । हे अर्जुन! जो वासनाते मुक्त है, सोई मुक्त है, अरु वासनासाथ बाँधा हुआ है, सोई बंध है, जो सर्व शास्त्रों का वेत्ता भी है, अरु सर्व धर्मोंकार। ग है, जब वासनाते मुक्त नहीं हुआ, तब बंधही हैं, जैसे पिंजरेविषे पक्षी बाँधा होता है, तैसे वह वासनाकार बाँधा हुआ है ॥ हे अर्जुन ! जिसके अंतर वासनाका बीज रहा है, अरु बाह्य दृष्टि नहीं आता सो बीज भी बड़े विस्तारको पावैगा, जैसे वटका बीज बडे विस्तारको पाता है, तैसे वह वासना विस्तारको पावैगी, अरु जिस पुरुषने आत्मा-