पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१७२

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श्रीकृष्णार्जुनसं • भविष्यतुगीता ० स० वर्णन-निर्वाणप्रकरण ६ (१०५३) का अभ्यास किया हैं, तिसकार ज्ञानरूपी अग्नि उपजाई हैं. उसकार वासनारूपी बीज जलाया है, तिसको बहुरि संसारभ्रम उदय नहीं होता, अरु वस्तुबुद्धिकार पदार्थको ग्रहण नहीं करता, अरु सुखदुःख आदि- कविषे नहीं डूबता, सदा निलंप रहता है, जैसे तुंबा जलके ऊपरही रहता है, वैसे वह सुखदुःखके ऊपर रहता है । हे अर्जुन! तू शांत आत्मा है, तेरा, भ्रम अब दूर भया है, अरु आत्मपदको तू प्राप्त भया है, मन मोह तेरा निर्वाण हो गया है, तू सम्यक्रज्ञानी हुआ है, व्यवहार अरु तूष्णीं तुझको तुल्य भई है, शतिरूप निःशंक पदको प्राप्त भया है, यह मैं जानता हौं ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रक्ररणे श्रीकृष्णसंवादे अर्जुनविश्रांतिवर्णनं नाम पंचपंचाशत्तमः सर्गः ॥५६॥ षट्रपंचाशत्तमः सर्गः ५६. श्रीकृष्णार्जुनसंवादे भविष्यत्गीतानामोपाख्यानसमाप्तिवर्णनम् ।। अर्जुन उवाच ।। हे अच्युत ! मेरा मोह अब नष्ट भया है, अरु आत्म- स्मृतिको मैं प्राप्त भया हौं, तेरे प्रसादते मैं अब निःसंदेह होकार स्थित भया हौं, अब जो कछु तुम कहौ सो मैं करीं ॥ श्रीभगवानुवाच ॥ हे अर्जुन ! मनकी जो पांच वृत्ति हैं, प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, अभाव, स्मृति जब यह पांचों हृदयसों निवृत्त हो जायें, तब चित्त शांत होवे, तिसके पाछे जो शेष रहता है, चैत्यते रहित चेतन तिसको प्रत्यक् चेतन कहते हैं, सो वस्तुरूप है, सर्वं उपाधिते रहित सर्व है अरु सर्वरूप हैं, जो तिस पदुको प्राप्त हुआ है, तिसको आधि व्याधि आदिक दुःख बांधि नहीं सकते, जैसे जलते निकसिकार पक्षी आकाशमार्गको | उड़ता है, तैसे वह देह अभिमानते मुक्त होकर आत्मपदको प्राप्त होताहै, तिसको दुःख नहीं बाँध सकते॥ हे अर्जुन ! प्रत्यक् जो चेतनसत्ता है, सो परम प्रकाशरूप शुद्ध है, संकल्प विकल्पते रहित है, ईद्रियके विषयमें नहीं आता, इंद्रियोंते अतीत है, जो पुरुष सर्वते अतीत पदको प्राप्त हुआ है, तिसको वासना नहीं स्पर्श कर