पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१७३

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योगवासिष्ठ । सकती, तिसके प्राप्त हुए यह घट पट आदिक पदार्थ सब शून्य हो जाते हैं, तहां तुच्छ वासनाका बल कछु नहीं चलता, जैसे अग्निसमूहके निकट बर्फ गलि जाती है, तिसकी शीलता नहीं रहती, तैसे शुद्ध पदके साक्षात्कार हुए चित्तवृत्ति नष्ट हो जाती है, अरु वासनाका भी अभाव हो जाता है । हे अर्जुन ! वासना तबलग फुरती है, जबलग संसारको सत्य जानता हैं, जब आत्मपदकी प्राप्ति होती है, तब संसार अरु वासनाका अभाव हो जाता है, इसकारणते विरक्त पुरुषको सत्य जाननेते कछु वासना नहीं रहती, तबलग नानाप्रकाके आकार विकार संयुक्त विद्या फुरती है, जबलंग शुद्ध आत्माको अपने आपकर नहीं जाना, शुद्ध आत्माको प्राप्त हुए जगद्धम सब नष्ट हो जाता है, आत्मतत्त्व स्वच्छ पदविषे स्थित होता है, आकाशवत् निर्मलभावको प्राप्त होता है, अरु अपने आपकार सबको पूर्ण देखता है, सोई आत्मसत्ता सर्व आकाररूप है, अरु सर्व आकाररूपते रहित है ॥ हे अर्जुन ! जो शब्दृते अतीत परम वस्तु है, तिसको किसकी उपमा दीजै, जो वासनारूपी विधूचिकाको त्यागिकार अपने आत्मस्वभावविषे स्थित हुआ पृथ्वीमें विचरताहै, सो त्रिलोकीका नाथ है। वसिष्ठउवाच॥ - हे रामजी ! जब इसप्रकार त्रिलोकीका नाथ कहेगा, तब अर्जुन एक क्षण मौनविषे स्थित हो जावैगा तिसके उपरांत कहेगा ॥ अर्जुन उवाच ॥ हे भगवन् ! सब शोक मेरे नष्ट हो गये हैं, तुम्हारे वचनों- कार बोध उदय हुआ है, जैसे सूर्य के उदंय हुए कमल खिल आते हैं, तैसे तुम्हारे वचनोंकार मेरा बोध खिल आया है, अब जो कछु तुम्हारी आज्ञा होवै सो मैं कराँगा ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! इस प्रकार कहकर अर्जुन गांडीव धनुष्यको ग्रहण करेगा, भगवान्को - सारथी कारकै निःसंदेह निःशंक होकरि रणलीला करेगा, कैसा युद्ध करेगा, जो हस्ती घोड़ा मनुष्य मारैगा, लोहूके प्रवाह चलेंगे, तो भी आत्मतत्त्वविषे स्थित रहैगा, स्वरूपते चलायमान न होवैगा, शूरोको नष्टकारे वैगा, परंतु ज्योंका त्यों रहेगा, जैसे पवन मेघका