पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१७४

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प्रत्यगात्मबोधवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. ( १०५५ ) अभावकार देता है तैसे योद्धोंका नाश करेगा, परंतु स्वरूपतेचलाय- मान न होवैगा ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे भविष्यत्रगीतानामोपाख्यानसमाप्तिर्नाम षट्पंचाशत्तमः सर्गः ॥२६॥ सप्तपंचाशत्तमः सर्गः ५७. प्रत्यगात्मबोधवर्णनम् ।। वसिष्ठ उवाच ॥ हेरामजी । ऐसी दृष्टिको अाश्रय कारकै निःसंग संन्यासी होडु, कैसी दृष्टि है, दुःखका नाश करती है, जो कछु कर्म- चेष्टा होवे सो ब्रह्म अर्पण करु, जिसविषे यह सर्व है, अरु जिसते यह सर्व है, ऐसी जो सत्ता है, र्तिसको तू परमात्मा जान, अनुभवरूप आत्मा है, तिसकी भावनाकार तिसीको प्राप्त होता है, इसविषे संशय नहीं, जो सत्ता संवेदन ऊरणेते रहित है, चेतनते रहित जो चेतन प्रकाशता है, तिसीको तू परमपद जान, सो सबका परम दृष्टारूप हैं। अरु सबका प्रकाशक है, सो महाउत्तम परम गुरुका गुरु है, सो आत्म- रूप है, शून्यवादी जिसको शून्य कहते हैं, विज्ञानवादी जिसको विज्ञान कहते हैं, ब्रह्मवादी जिसको ब्रह्म कहते हैं, सो परमसाररूप है, सो शिवरूप है, शतरूप अपने आपविषे स्थित है, सो आत्मा इस जगत्- रूपी मंदिरको प्रकाश करनैहारा दीपक है, अरु जगवरूपी वृक्षका रस है, अरु जगदूपी पशुका पालनहारा गोपाल है, अरु जीवभूतरूपी मोतीको एकत्र करनेहारा आत्मा तागा है, अरु हृदय आकाशविषे स्थित है, अरु भूतरूपी मिर्चविषे आत्मरूपी तीक्ष्णता है, अरु सर्व पदार्थविषे पदार्थरूप सत्ता वही है, सत्यविषे सत्यता वही है, असत्यविषे असत्यता वही है; जगतरूपी गृहविषे पदार्थका प्रकाशनेहारा दीपक वही है, तिसकार सब सिद्ध होते हैं, अरु चंद्रमा सूर्य तारे आदिक जो प्रकाशरूप दीखते हैं, तिनका प्रकाशक वही हैं, यह जड़ प्रकाश है, वह चेतन प्रकाश है, तिसकार यह सिद्ध होते हैं, तिसीते सब प्रकाश प्रगट भये हैं, सो आत्मसंवित् अपने विचार कर पाता हैं। हे रामजी !