पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१७५

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(१०५६) योगवासिष्ठ । जेते कछु भावअभाव पदार्थ भासते हैं, सो असत् हैं, वास्तव कछु हुए नहीं, प्रमाद दोप कारकै नानारूप भासते हैं, जब विचार उपजता है, तब यह नष्ट हो जाते हैं । हे रामजी ! अहंभाव जिसके अंतर है, ऐसा जो जगज्जाल है सो मिथ्या भ्रमकार भासता है, तिसको उपजा क्या कहिये; अरु सत्य क्या करिये किसकी आस्था कारये, यह जगत कछु वस्तु नहीं, आदि अंत मध्यकी कल्पनाते रहित जो देव है, सो ब्रह्मसत्ता- समान अपने आपविषे स्थित है, अपर द्वैत,कछु बना नहीं. जब यह निश्चय तुझको दृढ़ होवैगा, तब तू व्यवहार भी कत्त अंतरते निःसंग शतिरूप होवैगा । हे रामजी । जिस पुरुषकी तिस समान सत्ताविर्षे स्थिति भई है, सो इष्टअनिष्टकी प्राप्तिविषेरागद्वेषते रहित अंतरते सदा शांतरूप रहता है, वह न उदय होता है, न अस्त होता है, सदा समता- भावविषे स्थित रहता हैं, स्वस्थरूप अद्वैत तत्त्वविषे स्थित होता है, जगदकी ओरते सुषुप्तवत् हो जाता है, व्यवहार भी करता है, परंतु क्षोभवान्. नहीं होता, दर्पणकी नाई, जैसे गणि सब प्रतिबिंबको ग्रहण करती है, परंतु तिसको अंतर संग नहीं होता, तैसे ज्ञानवान् पुरुष कदाचित् कल- नाकलंकको नहीं प्राप्त होता, तिसका चित्त व्यवहारविपे भी सदा निर्मल रहता है, ज्ञानवान्को जगत् आत्माका चमत्कार भासता है, न एक है, न अनेक है, आत्मतत्त्व सदा अपने आपविषे स्थित है, चित्तविषे जो यह चेतनभाव भासता है, तिस चित्त फुरणेका नाम संसार है; अरु फुर- गेते रहित अफुरका नाम परमपद हैं ॥ हे रामजी ! महाचेतनविषे जो निजका अभाव हैं कि, मैं आत्माको नहीं जानता, इसीका नाम चित्त स्पंद संसारका कारण है, जब यह भावनाक्षय होवे, तब चित्त अफ़र . हो जावै ॥ हे रामजी ! जहाँ निजभाव होता है, तहाँ पदार्थको अभाव होता है, सो निज सब ठौर अपने अर्थको सिद्ध करता हैं, परंतु आत्मा- विषे प्रवृत्त नहीं सकता, जब यह कहता है कि, मैं आत्माको नहीं जानता, तब भी आत्माका अभाव नहीं होता, अभावको जाननेवाला भी आत्माही है, जो आत्मतत्त्व न होवै तब अभाव क्यों न कहे, सो आत्मा परम शून्य है, परंतु कैसा शून्य है, जो अजडरूप परम चेतन है ॥