पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१७६

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प्रत्यगात्मबोधवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६.' (१०५७ ) हे रामजी ! सो निजका अर्थ तू आत्माविषेकर, जो आत्माको निजकी भावना नहीं होती. अर्थ यह किं, आत्माको अभाव न मानौ, अरु अनात्मविषे जो निजका भाव है, तिसका अभाव करु, अर्थ यह कि, अनात्माको अभावरूप मन्,ि जब इसप्रकार दृढ भावना करैगा, तब संसार भ्रम निवृत्त हो जावैगा, केवल आत्मभावें शेष रहैगा, ॥ हे। रामजी । चित्तके ऊरणेका नाम संसार है, चित्तके ऊरणेकार संसारचक्र वर्त्तता है, माता मान मेय त्रिपुटीरूप चित्तही होता है, जैसे स्वर्णते भूषण प्रगट होते हैं, तैसे चित्तकार त्रिपुटी होती है, अरु चित्तस्पंद भी कछु भिन्न वस्तु नहीं, आत्माको आभासरूप है, अज्ञान कारकै चित्त- स्पंद होता है, ज्ञानकारिकै लीन हो जाता है, जैसे स्वर्णके भूषणको गालेते भूषणबुद्धि नहीं रहती, तैसे चित्तं अचल हुए चिंत्तसंज्ञा जाती- रहती है, जैसे भूषणके अभाव हुए स्वर्णही रहता है, तैसे' बोधकार चित्त जगत्के लीन हुए शुद्ध चेतनसत्वा शेष रहती है, बहार भोगकी तृष्णा लीन हो जाती हैं, जब भोगभावना निवृत्त भई तब ज्ञानका परम लक्षण सिद्ध होता है । हे रामजी ! जो ज्ञानवान् पुरुष है, जिसने सतस्वरू- पको जाना है, तिसको भोगकी इच्छा नहीं रहती, जैसे जो पुरुष अमृत- पानकारि अघाय रहताहै, तिसको खल आदिक तुच्छ भोजनकी इच्छा नहीं रहती, तैसे आत्मज्ञानकार जो संतुष्ट भया है, तिसको विषयकी तृष्णा नहीं रहनी, यह निश्चयकर जान, जब चित्त फुरताहैं, तब जगत्- भ्रम हो भासता है, अरु सत्य जानकार भोगकी इच्छा होती है, जब बोध होता है, तब जगद्धम लीन हो जाताहै, बहुरि तृष्णा किसकी करी अरु जब इंद्रियके विषय अनि प्राप्त होवें, अरु हठकार तिनको नभोगै, तब वह मूर्ख है, मानो शस्त्रकार आकाशको छेदता है ॥ हे रामजी ! मन जो वश होता है, सो गुरुशास्त्रोंकी युक्तिकार होता है, उनकी युक्ति- विना शुद्धता नहीं प्राप्त होती, जब कोऊ अपने अंगहीको काटै अरु तिसकार चित्तको स्थिर किया चाहैं, तो भी चित्त स्थिर नहीं होता, अरु संसारभ्रम नहीं मिटता, जबलग चित्त कोटिविषे स्थित है, तब लग जगद्रमको देखता है, जब गुरुशास्त्रोंकी युक्तिको ग्रहणक-