पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१७८

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विभूतियौगोपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१०५९) अष्टपंचाशत्तमः सर्गः ५८. विभूतियोगोपदेशवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी । परमतत्त्व जो परमात्मपद हैं, सो हमको सदा प्रत्यक्ष है, वस्तुरूप वही है, तिसते इतर कछु नहीं, यह प्रत्यक् आत्मा है, सर्व सत्ताका दर्पण है, सर्वसत्ता इसीते प्रगट होती हैं, जैसे बीजते वृक्षकी सत्ता प्रगट होती है, तैसे आत्माते जगत्सत्ता प्रगट होती है । हे रामजी ! मन बुद्धि चित्त अहंकार जडात्मक हैं, उनते रहित हैं, सो परमपद है, ब्रह्मा विष्णु रुद्रादिक सब तिसविषे स्थित हैं, तिस सत्ताको पायकरि बडी ऊंची प्रभुताकार शोभते हैं, जैसे चक्रवर्ती राजा निर्धनते ऊंचा शोभता है, तैसे यह सर्व लोकते ऊंचे शोभते हैं, तिस आत्माको जो प्राप्त होता है, सो मृत्युको नहीं प्राप्त होता, अरु शोकवान् कदाचित नहीं होता, अरु क्षीण नहीं होता, एक क्षणमात्र भी जो अप्रमादी होकर आत्माको ज्योंका त्यों जानता है, सो संसारकलनाको त्यागिकार मुक्त होता है ॥ राम उवाच ॥ हे भगवन् ! मन बुद्धि चित्त अहंकारके अभाव हुए सत्तासामान्य शेष रहती है, सो तिसका भान कैसे होवै ? ।। वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! जो सर्वं देहों विषे स्थित होकर भोजन करता है, जलपान करता हैं, देखता सुनता बोलता इत्यादिक क्रिया करता दृष्टि आता है, सो आदि अंतते रहित संविवसत्ता है, सर्वगत अपने आप- विषे स्थित है, अरु सर्वं विश्व वहीरूप है; आकाशविषे आकाशरूप वही हैं, शब्दविषे, शब्दरूप वही है, स्पर्शविषे स्पर्श, नासिकाविषे गंध- रूप वही है, शून्यविषे शून्य, रूपविषे रूप, नेत्रों विषे नेत्र वही, पृथ्वी- . विषे पृथ्वी, जलविषे जल, तेजविषै, तेज वृक्षविषे रस वही है, मनविषे मन, बुद्धिविषे बुद्धि, अहंकारविषे अहंकाररूप वहीहै, अग्निविषे अग्नि, उष्णताविषे उष्णता, घटविषे घट, पटविषे पर्दरूप वहीहै, वटेविषे वट, स्थावरविषे स्थावर, जंगमविषे जंगमरूप, चेतनविषे चेतन, जडविषे