पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१७९

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( १०६०) योगवासिष्ठ ।। जड़रूप वही हैं, कालविषे काल, नाशविषे नाश उत्पन्न होकर स्थित होता है, बालविषे बालक, यौवनविषे यौवन, वृद्धविषे वृद्ध, मृत्युविषे मृत्यु होकर वही परमेश्वर स्थित है । हे रामजी । इसप्रकार सर्व पदार्थ- विषे अभिन्नरूप स्थित हैं; नानात्वदृष्टि भी आती है, परंतु अनाना है, भ्रमकारकै नानात्व भासती हैं, जैसे परछाईंविषे भ्रमकारकै वैताल भास- ताहै, तैसे आत्माविषे नानात्व भासता हैं, सर्वविषे सर्व ठौर सर्व प्रकार सर्व आत्माही स्थित है, ऐसा जो आत्मदेव सत्तासमान है, तिसविषे स्थित होउ ॥ वाल्मीकिरुवाच ॥ इसप्रकार जब वसिष्ठजीने कहा, तब दिन अस्त हुआ, सर्व सभाके लोक परस्पर नमस्कार कारकै स्नानको गये, बार दिनको अपने अपने आसनपर आनि बैठे ॥ इति श्रीयोग ० निर्वाणप्रकरणे विभूतियोगोपदेशो नाम अष्टपंचाशत्तमः सर्गः ॥ ५८ ॥ एकोनषष्टितमः सर्गः ५९. जाग्रतस्वप्नविचारवर्णनम् । राम उवाच ।। हे भगवन् ! जैसे हमारे स्वप्नविषे घुर नगर मंडल होते हैं, तैसे ब्रह्मादिकने देवको ग्रहण किया है, उनको असमें प्रतीति है, हमको दृढ़ प्रतीति कैसे उपजी है ? । वसिष्ठ उवाच ।। हे रामजी ! प्रथम ब्रह्माको सर्ग असतवत् भासता है, वास्तव नहीं भासता सर्वगत चेतन- संवितको संसारके दर्शनकार जब सम्यकू दर्शनका अभाव भया, स्वप्न- रूपविषे आपते अहंप्रतीति उपजी, तब दृढ़ होकर देखने लगा, जैसे अपने स्वप्नविषे जगत् दृढ़ भासता है, स्वप्न नहीं जानता, तैसे ब्रह्माका जगत् भी दृढ़ भासता है, स्वप्न नहीं भासता; जो स्वप्नपुरुषते उपजा है, सो स्वप्न है । हे रामजी ! ऐसा जो सर्ग है सो जीव जीव प्रति उदय हुआ है, जैसे समुद्रविपे तरंग ऊरते हैं, तैसे चेतनतत्त्वका आभास जगत् फुरते हैं, जैसे स्वप्नपुरविषे अवास्तव पदार्थ होते हैं, तैसे यह पदार्थभी अवास्तव हैं, भ्रममात्रही मनके संकल्पकारि भासते हैं ॥ हे रामजी ! ऐसा पदार्थ कोई नहीं जो इस जगतविषे सिद्ध नहीं होता, अरु अपरका