पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१८

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बलैकप्रतिपादनवर्णन-निवणप्रकरण ६.


एकही है, जैसे ब्रह्म अरु जगत् नाममात्र दो हैं, वस्तुते एकही है, जैसे जलविषे तरंग अरु बबुदे जलरूप हैं, तैसे ब्रह्मविषे जगत् ब्रह्मरूप है,चेतन आत्मारूपी मिर्च है, अरु जगतरूपी तीक्ष्णता ॥ हे रामजी !ऐसा ब्रह्म तू है, अरु जो तू कहै मैं चित्त नहीं, तौ कछु माना जाता है,क्यों, जो तू कहै, मैं जड हौं, तौ तू आकाशवत हुआ, तेरे विषे कलनाका उल्लेख कैसे होवै, अरु जो चेतन है तौ शोक किसका करता है, अरु जो चिन्मय है तौ निरायास आदि अंतते रहित हुआ, सब तूही है, अपने स्वरूपको स्मरण करौ, तब शाँतिको प्राप्त होवोगे जो सब भावविषे स्थित है, अरु सबको उदय करनेहारा है, सो तूही है, शाँतरूप है,तू चैतन्य ब्रह्मरूप है ।। हे रामजी ! ऐसी जो चेतनरूपी शिला है,तिसके उदरविषे वासनारूपी फुरणा कहां होवे १ वह तौ महाघनरूप हैं ।। हे रामजी ! जो तू है, सो सोई है, उस अरु तेरेविषे भेद कछु नहीं,सोई सत् अरु असत्रूप होकार भासता हैं, सब पदार्थ जिसके अंतर हैं, अरु नानात्व जिसविषे कछु नहीं, अहं त्वं अज्ञ तज्ज्ञ जिसविषे कलना कछु नहीं, ऐसा जो सत्यरूप चिद्धन आत्मा हैं, तिसको नमस्कार है ।। हे रामजी ! तेरी जय होवै, कैसा है तू आदि अरु अन्तते रहित विशाल है, अरु शिलाके अंतर्वत चिद्धनस्वरूप है, आकाशवत् निर्मल है, जैसे समुद्रविषे तरंग हैं, तैसे तेरेविषे जगत् है, सो लीलामात्र है, तू अपने घनस्वरूपविषे स्थित होहु ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे विश्रामदृढीकरण नाम द्वितीयः सर्गः ॥ २ ॥

तृतीयः सर्गः ३.

ब्रह्मैकप्रतिपादनम् ।

वसिष्ठ उवाच ॥ हे निःपाप रामजी ! जिस चेतनरूपी समुद्रविषे जगवरूपी तरंग फुरते हैं, अरु लीन हो जाते हैं, ऐसा अनंत आत्मा है।सो तू भवकी भावनाते मुक्त है, अरु भाव अभावते, रहित है, ऐसा जोचिदात्मा तेरा स्वरूप है, सो सर्व जगत् वहीरूप है, तब वासनादिक