पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१८०

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बलैकप्रतिपादनवर्णन–निर्वाणप्रकरण ६. (१०६१ ) अपर नहीं भासता, अरु मर्यादाको नहीं त्यागता. काहेते कि, मनके संकल्पमात्र उपजे हैं, तू देख, जैसे जलविषे अग्नि स्थित है, अथवा समुद्रविषे वडवाग्नि है, सो क्या विपर्यय है ? इसी कारणते मैं कहता हौं, जो मनोमात्र हैं, अरु देख जो आकाशविषे नगर वसते हैं, विमान प्रत्यक्ष चलते हैं, अरु शिला जो हैं चिंतामणि आदिक, तिनते कमल उपजते हैं जैसे हिमालय पर्वतविषे बर्फ उपजता है, अरु सर्व ऋतुके फूल एकही समय उपजते हैं, जैसे संकल्पवृक्षते पत्थर निकसि आते • हैं, रत्नोंके गुच्छे जो लगते हैं, शिलाविषे जल निकसता है, तैसे चंद्रकांतसों अमृत द्रवता है, एक निमेषविषे घट पट हो जाते हैं, अरु पटघट हो जाते हैं; स्वरूपके विस्मरण हुए सत्को असत् देखता है, जैसे स्वप्नविषे अपना मरणा देखता है, जल ऊर्ध्वको चलता देखता है, मेघ होकार स्वर्गका चंदोआ होकार गंगा बहती हैं, पत्थर उडते हैं, जैसे पंखहूसहित पहाड़ उड़ते थे, चिंतामणि शिलारूपते सब पदार्थ उपजते हैं, इत्यादिक भ्रमकार नानात्व विपर्ययरूप हुए ऊरते हैं, ताते तू देख, जो मनोमात्र हैं, अपरका अपर हो जाते हैं ॥ हे रामजी ! यह इंद्रजाल गंधर्वनगर शंबर मायावत् है, असतूही भ्रमकारकै सत् हो भासते हैं, ऐसे पदार्थ कोई नहीं जो सत् नहीं अरुअसत् भी नहीं, मनविषे फुरते हैं ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे जाग्रत्स्वप्नविचारो नाम एको नषष्टितमः सर्गः ॥ ५९॥ षष्टितमः सर्गः ६०. ब्रह्मैकप्रतिपादनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! यह संसार मिथ्या है, जो पुरुष इसको सत्य जानता है, सो महामूर्ख है, अरु भ्रमविषे भ्रमको देखता हैं, अरु महामोहको प्राप्त होता है, जैसे कोऊ मृग टोएविषे गिर पडता है, तब महादुःखी होता है, बहुरि उसते भी बड़े टोएविषे गिरता है, तब अति दुःखको प्राप्त होता है, तैसे जो मूर्ख पुरुप है, सो आत्माके अज्ञानक- रिकै संसाररूपी टोएविषे गिरता है, तिसविषे अपर अपर भ्रमको देखता