पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१८१

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( १०६२) , योगवासिष्ठ । है, स्वप्नते स्वप्नांतरको देखता है, इसीते एक इतिहास कहता हौं ॥ है। रामजी 1 तू श्रवण कर. एक संन्यासी था, सो मननशीलवान था, योगका अष्टवाँ अंग समाधि है, तिसविषे स्थित था, अरु हृदय उसका समाधि करते करते शुद्ध हुआ था, समाधिकार दिनको व्यतीत करे, जब समाधिते उतरे, तब आसन बनायकार .बहुरि समाधिविषे जुड़े, इसीप्रकार जब बहुत काल व्यतीत भया तब एक समय समाधिते उतरे हुए, यह चिंतना करने लगा, कि जैसे प्रकृत पुरुष विचरतेहैं, अरु चेष्टा करते हैं, तैसे मैं भी कछु चेष्टारचौं, ऐसे विचार करिकै मनके संकल्पते विश्वकल्पि तिसविषे एक आप.भी बना, तिसका नाम झीवट भया, मद्यपान करै, अरु ब्राह्मणकी सेवा भी करै, तिस झीवट शरीरविषे वर्त्तने • लगा, चेष्टा करते हुए सोय गया, तब स्वप्न पाया, स्वप्नविषे ब्राह्मणका शरीर तिसको भान हुआ कि, मैं ब्राह्मण हौं, तब ब्राह्मणके शरीरविषे वेदका अध्ययन करने लगा, तब पाठ बहुत करै, ऐसी चेष्टाकरि चिर- काल व्यतीत भया, तब सोए हुए स्वप्न पाया, तहां आपको राजा देखत भया, कि मैं राजा हौं, बडी सेनासंयुक्त राजा होकार विचरने लगा, केतक काल इसीप्रकार व्यतीत भया, तब सोए हुए बहुरि स्वप्न पाया, तिसस्वप्नविषे आपको चक्रवर्ती राजा देखत भया, कि मैं चक्रवर्ती राजा हौं, तब चक्रवर्ती होकार सारी पृथ्वीपर आज्ञा चलाने लगा, जब केतक काल व्यतीत भया, तब स्वप्न पाया, स्वप्नविषे आपको देवगना देखत भया, कि मैं देवताकी स्त्री हौं तब देवताकी स्त्रीहोकर देवताके साथ बागविषे विचरे जैसे वल्ली वृक्षके साथ शोभा पातीहै, तैसे देवताके साथ शोभा पाने लगा, इसीप्रकार कोई काल देवताके साथ व्यतीत भयो, तब बहार स्वप्न पाया, तिस स्वप्नविषे आपको हरिणी देखता भया, कि मैं हरिणी हौं, हरिणी होकार वनविषे विचरने लगा, कोई काल ऐसे व्यतीत भया, बहुरि स्वप्न पाया, तब आपको वल्ली देखता भया कि, मैं देवताके वनकी वल्ली हौं, जब ऐसे कोई काल व्यतीत भया, तब स्वप्न पाया, स्वप्न- विषे आपको भंवरी देखत भया. कि मैं भंवरी हौं भंवरी होकार सुगं- धिको ग्रहण करने लगा, तिसके अन्तर बहार स्वप्न पाया, तब देखत