पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१८२

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ब्रह्मैकप्रतिपादनवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१०६३ ) भया, कि मैं कमलिनी हौं, कमलिनी हुआ, तहाँ एक दिन हस्ती आय- करि वल्लीको खाय गया, जैसे कोई मूर्ख बालक भली वस्तुको तोड डारता है, तैसे मूर्ख हस्ती वल्लीको तोड़कर खाय गया, तिसके उपरांत तिस वल्लीमें हस्तीका शरीर,पाय बड़ा दुःख भी पाया, टोएविषे गिरा, केतक काल व्यतीत भया, तब फिर हस्तीका स्वप्न आया, बहुरि सँवरी होकर कमलविषे विचरने लगा, केतक काल व्यतीत भया, तब बहुरि वल्ली हुआ, उस वल्लीके निकट एक हस्ती आया, हस्तीके पाकर वह वल्ली चूर्ण भई, तब उस वल्लीको एक हंसने खाया, वह वल्ली हंस भई, हंस होकार बड़े मानससरोवरविषे विचरने लगा, बहुरि हँसके मनविषे आया कि, ब्रह्माका हंस होउं, तब संकल्पकारिकै ब्रह्माका हंस बनि गया, जैसे जलका तरंग बनि जावे, तैसे वह ब्रह्माका हंस बनि गया, तब ब्रह्माके उपदेशकार हेसको आत्मज्ञान प्राप्त भयो । हे रामजी ! अज्ञानकारिकै ऐसे भ्रमको प्राप्त भया, सो ज्ञानकारिकै शांत भया, बहार विदेहमुक्त होवैगा, वह हंस सुमेरु पर्वतविषे उडा जाता था, बहुरि उसके मनविषे आया कि, मैं रुद्र होऊ, तब सत्संकल्प कारकै रुद्र होगया, जैसे शुद्ध दर्पणविषे प्रतिबिंब शीघ्रही पड़ता है, तैसे शुद्ध अंतःकरणके संकल्पकार रुद्र भया, रुद्ध कहिये जिसको अनुत्तर ज्ञान हैं, अनुत्तर- ज्ञान कहिये जिसके जाननेते अपर जानना कछु न रहे, सर्वते श्रेष्ठ ज्ञान सो रुद्रको अनुत्तर ज्ञान है, तिस अनुत्तर ज्ञानकर शोभित रुद्र होकर अपनी चेष्टा करत भया, अरु अपने गुणको देखत भया, रुद्रके मनविषे विचार हुआ कि बड़ा आश्चर्य है, मैं अज्ञानकारिकै एते बड़े भ्रमको प्राप्त हुआ था, ऐसी आश्चर्य माया, मैं तो एक रूप पड़ा हौं, अरु यह विश्व मेरा स्वरूप हैं, अपने जो मेरे शरीर हैं, तिनको जायकार जगावौं, तब रुद्र उठ खड़ा हुआ, अपने स्थानोंको चला, प्रथम जो संन्यासीका शरीर था, तिसको आयकर देखा, देखिकार तिसको चित्तशक्तिसों जगाया; तब संन्यासीके शरीरविषे ज्ञान हुआ, जो सर्व मैंही खड़ा हौं, परंतु संन्यासीने जाना कि, मेरे ताईं रुद्रने जगाया है, तब जानत भयो कि, इतने शरीर मेरे और भी हैं, तब वहाँते रुद्र अरु संन्यासी दोनों चले,