पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१८४

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अलैकप्रतिपादनवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (.१०६५) विश्व मेराही स्वरूप है, अरु देखत भया कि एते शरीर मैंने अज्ञान कारकै धारे हैं, आश्चर्य माया है, राजा स्वरूपविषे जागा, तब रुद्र सं- न्यासी झीवट मद्यपान करनेवाला ब्राह्मण अरु राजा वहांते चले अरु हस्तीते आदि लेकर जो शरीर धारे थे सो जगाये, वह शरीर धारे थे, सो सब जगाये तिनविषे यही निश्चय भया कि, हम चिन्मात्ररूप हैं, अरु आवरणते रहित हैं, आवरण कहिये अज्ञानका ऊरणा तिसते रहित हैं। हे रामजी ! तब उनके शरीर देखने विषे सब दृष्ट आवै, परंतु चेष्टा सबकी एक जैसी अरु निश्चय भी एक जैसा उनका नाम सत् रुद्र भयो, वह सत् रुद्र हुये ॥ ताते हे रामजी । विश्व संपूर्ण अज्ञानरूप ऊरणेकारकै होता है, अरु ज्ञानकारिकै देखिये, तब कछु हुआ नहीं ऐसेही उनकी संवेदन अरु निश्चय एक जैसा हुआ, एक देखै तौ सर्वही मेरा रूप है, जब दूसरा देखै तब मेराही रूप है, इसीप्रकार सर्वही देखत भये कि, सब अपनाही स्वरूप है, तिसविषे यह दृष्टांत है, जैसे समुद्रते तरंग होते हैं, आकार उनके भिन्न भिन्न होते हैं, अरु स्वरूप उनका एक जैसा होता है तैसे ज्ञानवान् सर्व विश्वको अपनाही स्वरूप देखते हैं, अरु अज्ञानी उनको भिन्न भिन्न जानते हैं, अरु आपको भिन्न जानते हैं, एकको दूसरा नहीं जानता, दूसरेको प्रथम नहीं जानता, सो क्या नहीं जानते, जो अपना स्वरूप है, तिसको नहीं जानते, जैसे पत्थ- रके वटे दो पडे होवें, तब न आपको जानते हैं, न दूसरेको जानते हैं, कि मेरा स्वरूप तैसे अज्ञानी न आपको जानते हैं, न अपरको अपना स्वरूप जानते हैं ।। हे रामजी ! यह विश्व अपनाही स्वरूप है, अरु अज्ञानकारकै भिन्न भासता है, अज्ञान कहिये जो चिन्मात्रविषे फुरणा,तिस ऊरणेविपे संसार है, अरु अफुरणेविये आत्माही स्वरूप है, ताते हे रामजी ! फुरणेका त्याग करु, अपर कछु नहीं, जिसप्रकार शत्रु मरे तिसप्रकार मारिये यही यत्न करहु, अरु मैं तेरे ताईं ऐसा उपाय कहता हौं, जिसविषे यत्न भी कछु नहीं, अरु शत्रु भी मारा जावै, सो उपाय यही है कि, चितवना कछु न करिये, इसविषे यत्न कछु नहीं, सुगम उपाय है । हे रामजी ! यह चितवनाही दुःख है, अरु चितव-