पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१८६

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बलैकप्रतिपादनवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१०६७ ) स्थानको जाउ, अरु कोऊ काल अपने कलत्रविषे भोग भोगहु, बहुरि तुम मेरे गण होकर मुझको प्राप्त होहुगे, महाकल्पविषे हम सबही विदे- हमुक्त होनँगे ।। हे रामजी । जब ऐसे रुद्रने कहा, तब सब अपने अपने स्थानोंको गये, अरु रुद्रजी भी अंतर्धान हो गये, सो अब भी तारेका आकार धारे हुए कभी कभी मुझको आकाशविषे दृष्ट आते हैं । राम उवाच ॥ हे भगवन् ! तुमने कहा संन्यासीने झीवटते आदि सब शरीर धारे सो सत् कैसे हुए, अरु तिनकी सृष्टि कैसे सत् हुई सो कहौ ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! आत्मा सबका अपना आप है, शुद्ध है, अरु चेतन आकाश है, अरु अनुभवरूप है, तिस अपने आपविषे जैसे देश काल वस्तुका निश्चय होता है, तैसेही आगे बन जाता है, जैसे जैसे फुरता है, तैसेही आगे हो जाता है, जिसका मन शुद्ध होता है, तिसका सत्संकल्प होता है, जैसा संकल्प करता है, तैसाही होता है, अरु जब तू कहै, संन्यासीका अंतःकरण शुद्ध था, तिसने नीच ऊँचजन्म कैसे पाये, नीच कहिये मद्यपान करनेवाला, अरु सँवरी वल्लीते आदि लेकर, अरु ऊंच कहिये ब्राह्मण राजाते आदि लेकर शुद्ध अंतःकारणविषे ऐसे जन्म नचाहा, तिसका उत्तर यह हैं कि, संवे- दुनाविषे जैसा फुरणा होता है, तैसाही हो भासता है, जैसे एक पुरुषका अंतःकारण शुद्ध हो, तिसको मनविषे फुरै कि, एक शरीर मेरा विद्या- धर होवे, अरु एक शरीर मेरा भेडता होवै तिसके दोनों हो जाते हैं, भला भी अरु बुरा भी, अरु जब तू कहै बुरा क्यों बना, भलाही बनता, तिसका उत्तर सुन, जैसे भले पंडितके घर पुत्र होवे, अरु संस्कार कारकै चोर हो जावै, संस्कार क्याजोवासना मलिन होवे, तब तिसको दुःख होता है । ताते हे रामजी ! सर्व फुरणेहीकार ऊंच नीच होते हैं, जब अभ्यास अरु परम योग होता है, तब शुद्ध होता है, अभ्यास कहिये मंत्र जाप, अरु योग कहिये चित्तका स्थिर करना, इसकारकै जैसी जैसी चिंतना होती हैं, तैसीही सिद्धि होती है, अरु अज्ञानीकी नहीं होती है, जैसे वस्तु निकट पड़ी है, भावना नहीं तवं दूर हैं, तैसे अज्ञानीकी भावना नहीं, नतब दूरवाली प्राप्त होती है, न निकटवाली प्राप्त होती हैं, क्यों नही