पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१८९

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( १०७०) योगवासिष्ठ । समाधिविषे स्थित हुए अरु उसको समाधिविषे सहस्र वर्षका अनुभव भया है, अरु बहुत जन्म भी पाये हैं, कैसे जन्म जो प्रत्यक्ष देखत भयो, अरु सृष्टिभी प्रत्यक्ष देखी, तिसविषे विचरा ।। हे रामजी ! इस जैसा एक अपर भी पूर्व कल्पविषे था, यह तीनहीथे, सो एकको बहुत देख रहा हौं, कोई दृष्ट नहीं आता, तब राजा दशरथने कहा ॥ हे महामुने ! जब तुम आज्ञा करौ, तब मैं अपना अनुचर चिन्माचीन नगर उत्तरवाले भेजौं तहांजायकारि तिस संन्यासीको जगाव, तब वसिष्ठजीने कहा ॥ हे राजन् ! वह संन्यासी अब ब्रह्मका हंस होकार ब्रह्माके उपदेशसों जीव- न्मुक्त हुआ है, अरु जोशरीर उसका है, सो अब मृतक हुआ है, इसविषे अब पुर्यष्टका जो जीव हैं सो नहीं तिसको क्या जगावना है, अरु एक महीने पीछे उसका दरवाजा सो खोलेंगे, तब नगरके लोक देखेंगे,जो नृतक पडा है, ताते हे रामजी! यह विश्व संकल्पमात्रही है, अरु जब तू कहै, एक जैसे क्योंकार हुए तब सुन, जैसे यह मुनीश्वर ऋषि राजा अरु अपर जो संसारविषे लोक हैं सो कई बार एक जैसा शरीर धारते हैं,अरु कई मध्य

  • धारते हैं, कई कछु थोडा धारते हैं अरु कई विलक्षण धारते हैं, सो

श्रवण कर, यह जो नारद है, सो इस जैसा अपर भी नारद होवैगा, तिसकी चेष्टा भी ऐसी होवैगी, अरु शरीर भी ऐसा होवैगा, अरु व्यासजी अरु शुकदेव भृगु अरु भृगुका पिता अरु जनक अरु करकरी, अरु अत्रि ऋषीश्वर जैसा अब है, अरु अत्रिकी स्त्री भी जैसी अब घंढ है ऐसाही अत्रि अरु ऐसीही स्त्री होवैगी, इनते आदि लेकर बहुारे होवेंगे, जैसे समुद्रविषे तरंग एक जैसे भी होते,घट अरुवट भी होतेहैं। हे रामजी । तैसे यह संसार ब्रह्माते आदि लेकर पातालपर्यंत सब मनका रचा हुआ है, सो सब मिथ्या है, जब यह चित्तकला बहिर्मुख होती है, तब संसार देश काल होता है, जब अंतर्मुख होती है, तबलग आत्मपद प्राप्त होता है, अरु जबलग बहिर्मुख होती है, तबलग दुःखको पाता है, अपना स्वरूप आनंदरूप है, तिसविषे चित्तकला जाती है कि, मैं सदा दुःखी हौं, देह अरु इंद्रियां साथ मिलकार दुःखी होता है । ताते हेरामजी। इस अज्ञानरूप ऊरणेते तू रहित होउ ऊरणेकार