पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१९३

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(३ ०७४) योगवासिष्ठ । जावेगा काहेते कि, जो तेरा आत्मा अपना आप है, केवल शाँतरूप है, अरु निर्मल है, जैसे गंभीर समुद्र वायुते रहित होता है, तैसे आत्मारूपी समुद्र संकल्परूपी वायुते रहित गंभीर शुद्ध होता है, अरु यह संसार चित्तका चमत्कार है, सो चित्त निरंश है, तिसविषे अंशांशीभाव नहीं; अद्वैत है ॥ हे रामजी ! जब ऐसे बोधविषे स्थित होवैगा, तब इस विश्वको भी आत्मरूप देखेगा, अरु बोधविना देखेगा, तब विश्वको भान होवैगा ताते हे रामजी बोधविषे स्थित होहु ॥ इति श्रीयोगवासिष्टे निर्वाण- प्रकरणे ब्रहृकताप्रतिपादनवर्णनं नाम षष्टितमः सर्गः ॥ ६० ॥ . एकषष्टितमः सर्गः ६१. वेतालप्रश्नोक्तिवर्णनम् ।। वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! सदाशिवका आदि ऊरणा हुआ है। जो त्रिनेत्र, अरु विश्वका संहार करणा, अरु शिरकी माला धारणी, -अरु ब्रह्माके चार मुख, अरु चारों वेद हाथविषे, अरु संसारकी उत्पत्ति करणी ऐसे फुरणा हुआ है ॥ हे रामजी ! ब्रह्मा विष्णु रुद्र यह तीनों एकरूप हैं, अरु चेष्टा इनकी स्वाभाविक यही बनी पड़ी है, न राग- करिकै अंगीकार किया है, न छेपकारिकै त्याग करते हैं, अरु यह संज्ञा भी लोकके देखनेमात्र हैं, अपने ज्ञानविषे कछु नहीं करते, जो बंधिविधेही जाग्रत है, बोधविवे जाग्रत् क्या कहिये, अरु कैसे होता है, सो श्रवण करु, एक सांख्य मार्गकार होता है, अरु एक योगमार्गकार होता है, साँख्य कहिये तत्त्व अरु मिथ्याका विचा- रणा, तत्त्व कहिये मैं आत्मा हौं, सत् हौं अरु चेतन हौं, अरु मिथ्या सर्व दृश्य जड़ असत् है, मेरेविषे अज्ञान र कल्पित है, मैं आत्मा अद्वैत हौं, मेरेविषे अज्ञान अरु दृश्य दोनों नहीं, ऐसे निश्चयविषे स्थित होना, सो सांख्य विचार है, अरु योग कहिये प्राणोंका स्थित करना, जब प्राण स्थित होते हैं, तब मन भी स्थित हो जाता है, अरु जब मन स्थित हो जाता है, तब प्राण भी स्थित होते हैं, इनका परस्पर संबंध है ॥ राम उवाच ॥ हे भगवन् ! जब प्राण स्थित हुऐ मुक्त होता