पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१९४

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| वैतालप्रश्नौक्तिवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१०७५) है, तब मृतक पुरुषके प्राण नहीं ग्हते, निवृत्त हो जाते हैं, तब सब मुक्त हुए चाहिये । वसिष्ठ उवाच ।। हे रासजी ! प्रथम तौ वर्णाश्रम करु कि, क्या है, यह जीव पुर्यष्टकाविषे स्थित होकार जैसी वासना करता है, बहुरि शरीरको त्यागिकार आकाशविषे स्थित होता है, इसका नाम मरणा हैं, तिस वासनारूप प्राणकरिकै बहुरि इसको संसारभान होता है, अरु जब प्राणकी वासनाक्षय होती है, तब मुक्त होता है, ज्ञानीकी वा- सना क्षय हो जाती है, तोते जन्ममरणसों रहित होता है, जैसे भूना बीज बहुरि नहीं उगता, तैसे ज्ञानीको वासनाके अभावते जन्ममरण नहीं होता। हे रामजी ! जन्ममरण दोनों मार्गकरि निवृत्त होता है, अरु दोनोंका फल कहा है ॥ हे रामजी ! ज्ञानकारिकै चित्त सत्यपदको प्राप्त होता है, अरु योगकरिकै प्राणवायु स्थित होता है, तब वासना क्षय हो जाती है, जब स्वरूपकी प्राप्ति होती है, तब संसारके पदार्थका अभाव हो जाता हैं जैसे रसायनकारि तांबा सोना भया, तब तांबाभाव नहीं रहती, तैसे विश्वरूपी तांबेकी संज्ञा नहीं रहती, जैसे ताँबाभाव जाता रहता है, तैसे ज्ञानकर जब चित्त सत्यरूप हुआ फिर संसारी नहीं होता, अरु आत्मा विषे न बंध है, न मुक्त है, एक परमात्मा अद्वैत है, तब बंध कहाँ अरु मुक्त कहां, बंध अरु मुक्त चित्तके कल्पे हुए हैं, अरु चित्त शांत करनेका जो उपाय है, सो कहा है, तिसकार शांत होता है, इसीको मुक्त कहते हैं, अपर बंद मुक्त को नहीं. चित्तके उदय होनेका नाम बंध है, चित्तका शांत होना यही मुक्ति है, ॥ हे रामजी ! जब मन अपने वश होता है, तब आत्मपद प्राप्त होता है, अथवा प्राण स्थित होते हैं, तब आत्मपद प्राप्त होता है, अरु यह संसार मृगतृष्णाके जलवत् मिथ्या है, जब वासना निवृत्त होती है, तब आत्मपदविषे स्थिति होती है, जैसे मेघ जलसंयुक्त होते हैं, तब गर्जते हैं, अरु वर्षा करते हैं, जब वषकार रहित हैं, तब शांत हो जाते हैं, तैसे जब वासना क्षय होती है, तब शांत चित्त हो जाता है, जैसे शरत्कालविषे बादल अरु कुहिड निवृत्त हो जाते हैं, अरु शुद्ध निर्मल आकाशही रहता है, तैरने वासनारूपी बादल अरु कुहिडके निवृत्त हुएते आत्मा शुद्ध केवल चेतनही भासताहै, एक