पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१९७

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(३०७८) योगवासिष्ठ । ऐसे आत्माविषे स्थित होऊ, जो आत्मसत्तामात्र पद है जिस सत्तामात्र पदते कालसत्ता हुई है, तिसीते आकाशसत्ता हुई है, तिस ऐसे सत्पदते सर्व सत्ता प्रगट हुई है, सो सब संकल्पते उदय हुए हैं, अरु संकल्पके लय हुए मब लय होजाता है, अरु तने जो प्रश्न किया था, वह कौन सूर्य है, जिसते ब्रह्मांडरूपी अणु होते हैं, सो वह ब्रह्म सूर्य है, जिसते इतर अपर कछु नहीं, अरु केलेका वृक्ष जो तैने पूछा था, सो केलेकी नाईं विश्वके अंतर बाहिर आत्मा स्थित है, जैसे केलेके अंतर फोलेते शून्य आकाशही निकसता है, तैसे विश्वके अंतर बाहिर आत्माते इतर अपर सार कछु नहीं निपकता, जो अद्वैत है; तिसते इतर द्वैत कछु नहीं अरु वह पवन ब्रह्म है, जिस पवनविषे ब्रह्मांडके समूह उडते हैं, अरु वह पुरुष स्वप्नते स्वप्न आगे अपर स्वप्न देखता है, अरु एक अपने स्वतःविषे स्थित हैं, स्वप्न कहिये जो चित्तकला फुरती है, तब अनंत ब्रह्मांड भान होते हैं, तब भी इतर कछु हुआ नहीं एकही रूप नटवत् रहता है, यह सब उसकी आज्ञासों वर्तते हैं, अरु सूक्ष्मते सूक्ष्म है, स्थूलते स्थूल है, अरु जिसविषे मंदराचल पर्वत भी अणु है, ऐमा स्थूल है, अरु जिसविषे वाणीकी गम नहीं, अपने आपहीविषे स्थित है, इंद्रियोंते अगोचर इसकारि सूक्ष्मते सूक्ष्म है, अरु पूर्णताकरिकै स्थूलते स्थूल है । हे मूर्ख वैताल ! तू आहार किसको करता है, अरु क्षुधाकर व्याकुल क्यों भया है, तू तौ आत्मा अद्वैतरूप है, अरु आनंदरूप है, तू अपने स्वतःविषे स्थित हो, जब ऐसे प्रश्नका उत्तर देकार राजाने उपदेश किया, तब वैताल वहाँते चला कि, एकांत स्थानविषे स्थित हो, ऐसे झूठ संसार मृग- तृष्णाके जलविषे मेरे ताईं क्या प्रयोजन है, तब एकांत स्थानविषे जायकरि स्थित हुआ, अरु ध्यान लगाय बैठा, ध्यान कहिये कि, एक धाराप्रवाहक प्रवाह स्थित हुआ, धाराप्रवाहकप्रवाह कहिये आत्माका अभ्यास दृढ़ किया आत्माते इतर कछु फुरै नहीं, एकरस स्थित हुआ ' ऐसे ध्यानविषे स्थित होकार वैताल सत् आत्मा पदको प्राप्त हुआ। हे रामजी ! यह राजा अरु वैतालका आख्यान तुझको श्रवण कराया,