पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१९८

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भगीरथोपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. ( १०७९ ) सो आत्मा कैसा है, जिसविषे ब्रह्मांड अणुकी नाईं स्थित है ताते निर्वि- कल्प आत्माविषे स्थित होउ, अरु इंद्रियोंको बाहिरते संकोचकर स्थित करु ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणिप्रकरणे राजवैतालसंवादे वैतालब्रह्मपदप्राप्तिनम द्विषष्टितमः सर्गः ॥ १२ ॥ त्रिषष्टितमः सर्गः ६३. भगीरथोपदेशवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! एक आख्यान आगे हुआ है, सो श्रवण करु॥ एक भगीरथ नाम राजा था, उसकी मूढता गई है अरु स्वस्थ चित्त होकर आत्मपदविषे स्थित हुआ, अपने प्रति प्रवाहविषे विचग है, अरु अपने पुरुषार्थकार स्वर्गलोकते गंगा मध्यलोकविषे ले आया है, तैसे तू विचरु, सो कैसा था, जो अर्थी कोई आता था, तिसका अर्थ पूर्ण करता था, जिस पदार्थका कोई संकल्पकार आवै, सो राजा उसका पूर्ण करे, अरु जो राजासों मित्र भाव करे, तिसको चंद्रमारूप होवै, जैसे चंद्रमाको देखकर चंद्रमणि अमृतको द्रुवता है, तैसे मित्रभावको राजा था, अरु जो राजासों शलभाव है, तिसको नाश करनेहारा था, जैसे सूर्यके उदय हुए अंधकार नाश हो जाता है, तैसेही शको नाश करनेहारा था, जैसे अग्निते अनेक चिणगारे उठते हैं, जैसे शत्रुको शस्त्रोंकी भी वर्षा करता था,अरु प्रतिप्रवाहविष स्थित रहताथा, भले बुरे सुखदुःखविष एक समान रहता था। राम उवाच ॥ हे भगवन् ! ऐसा जो भगीरथ था,तिसके मन- विषे क्या आई जो गंगाको ले आया ॥ वसिष्ठ उवाच ।। हे रामजी ! एक समय अपने नगरको देखत भेया कि सब लोक भले मार्गको त्यागिकार बुरे मार्ग पापकर्मविष लगे हैं, अरु लोक मूर्ख हुए हैं तब लोकके उपकारनिमित्त तप करने लगा, ब्रह्मा रुद्र अरु यज्ञ ऋषि तिनका तप कारिकै आराधन किया, अरु गंगाके लावनेनिमित्त मंत्र जपने लगा, सो गंगा कैसी है, जिसका एक प्रवाह स्वर्गविषे चलता है, अरु एक प्रवाह