पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१९९

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(१०८० ) • योगवासिष्ठ । पातालविषे चलता हैं, अरु एक प्रवाह राजा भगीरथने मध्यलोकविष चलाया है, अरु भगीरथ राजाने गंगाको लाकर समुद्रपर भी उपकार किया है, कैसा समुद्र जो अगस्त्य मुनिकारि सुखाया है। तिस गंगाके अनेकरि समुद्रको दारिद्य भी निवृत्त हुआ, ऐसा जो राजा है, तिसके मनविषे विचार उपजा, संसारको देखिकार कहने लगा कि, एकही वारे- वार करना यह बड़ी मूर्खता हैं नित्य वही भोगना, वही खाना, इत्या- दिक कम बहुरि करने, अरु जिस कर्म कियेते पाछे सुख निकसै,तिसके करनेका कछु दूषण नहीं, ऐसे वैराग्य कारकै विचार उपजा कि, संसार क्या है, सो राजा यौवन अवस्थामें था, जैसे मरुस्थलविषे कमल उपजना आश्चर्य है, तैसे यौवन अवस्थाविषे विचार उपजना आश्चर्य है ॥ हे रामजी ! जब राजाको ऐसे विचार उपजा तब घरते निकसा, अरु त्रितल ऋषीश्वर जो गुरु था, तिसके निकट जायकार प्रश्न करत भया ।। राजोवाच ॥ हे भगवन् ! वह कौन सुख है, जिसके पायेते जरा- मृत्युके दुःख निवृत्त होते हैं, अरु यह संसारके सुख अंतरते शून्य हैं, इनके परिणामविषे दुःख है ॥ ॥ त्रितलऋषिरुवाच ॥ हे राजा ! जानने योग्य एक ज्ञेय है, जिसके जानेते शांत पद प्राप्त होता है, सो आत्मज्ञान है, सो आत्मसुख कैसा है, न उदय होता है, न अस्त होता है, ज्योंका त्यों अपने आपविषे है । हे राजा ! यह जरा मृत्यु तबलग भासता है, जबलग अज्ञान हैं, जब ज्ञानरूपी सूर्य उदय होवैगा, तब अज्ञानरूपी अंधकार निवृत्त हो जावैगा, केवल शांत पविषे स्थित होवैगा, अरु आत्मानंद सर्वज्ञ है, जिसके जानेते चित्तजड़ग्रंथी टूटि जाती हैं, चित्तजङ्ग्रंथी कहिये अनात्म देहइंद्रियादिकविषे आत्मअभि- मान करना, सो निवृत्त हो जाता है; अरु सब कर्म भी निवृत्त होते हैं, संशय सब नष्ट हो जाते हैं, ऐसे शुद्ध स्वरूपको पायकार ज्ञानी स्थित होते हैं, सो सत्ता सर्व है, सर्वगत नित्य स्थित है, उदय अस्तते रहित है ॥ ॥ राजोवाच ॥ हे भगवन् ! ऐसे मैं जानता हौं, जो आत्मा चिन्मात्र सत्ता हैं, अरु देहादिक मिथ्या है, अरु आत्मा सर्वज्ञ है, अरु शतरूप है, निर्मल अच्युतरूप है, ऐसे जानता भी हौं, परंतु शांति मेरे