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चित्तभावाभाववर्णन-निर्वाणप्रकरण ६.


होहु, अरु बाह्यते अपने वर्णाश्रमका व्यवहार करौ, काष्ठ पत्थरकी नाईं अंतर हर्षशौकते रहित स्थित होहु, संवितमात्र आत्माको जो अपना रूप देखता है, सोई सम्यकुदर्शी है, तिसका अज्ञान अरु मोह नष्ट होजाता है, जैसे नदीका वेग मूलसहित तटके वृक्षको काटता है, तैसे आत्मज्ञान मोहसहित अज्ञानको काटता हैं। मित्रता वैर हर्ष शोक राग द्वेष आदिक जो विकार हैं, सो चित्तविषे रहते हैं, सो चित्त उसका नष्ट हो जाता है ।। हे रामजी ! ज्ञानी सोता भी दृष्टि आता है, अरु सोता कदाचित् नहीं, जिसका अनात्मविषे अहंभाव निवृत्त भया है अरु बुद्धि जिसकी लेपायमान नहीं होती, सो पुरुष इस लोकको मारै तौ भी उसने कोई नहीं मारा अरु न वह बंधायमान होता है ।। हे रामजी! जो वस्तु होवै नहीं अरु भासै, तिसको मायामात्र जानिये उसको जानेते नष्ट होजावैगी जैसे तेलविना दीपक शांत हो जाता है, तैसे ज्ञानकारि वासना क्षय हो जाती है, चित्त अचित्त हो जाताहै, जिसको सुखदुःखविषे ग्रहण त्याग नहीं सो जीवन्मुक्त आत्मस्थित है।। इति श्रीयोगवाशिष्ठे निर्वाणप्रकरणे ब्रह्मैकप्रतिपादनं नाम तृतीयः सर्गः ॥ ३ ॥

चतुर्थः सर्गः ४.

चित्तभावाभाववर्णनम् ।

वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! मन, बुद्धि, अहंकार, इंद्रियादिक जो दृश्य है, सो सब अचिंत्य चिन्मात्र है, जीव भी अभिन्नरूप है, जैसे स्वर्ण अरु भूषणविषे भेद कछु नहीं, तैसे चिन्मात्र अरु जीवादिक अभिन्न हैं, जबलग चित्त अज्ञानमें होता है, तबलग जगत्का कारण होता है, जब अज्ञान नष्ट होता है, तब चित्तादिकका अभाव हो जाता है, अध्यात्मविद्या जो वेदांतशास्त्र है, तिसके अभ्यासकार नष्ट हो जाता है, जैसे अग्निके तेजकर शीतका अभाव हो जाता है, तैसे अध्यात्मविद्याके अभ्यास विचारते अज्ञान नष्ट हो जाता है जबलग अज्ञानका कारण तृष्णा उपशमको प्राप्त नहीं भई, तबलग अज्ञान है, जब